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History of rajkuwar mohansingh bikaner 1672

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 वीर राजकुँवर मोहनसिंह बिकानेर
7 मार्च 1672 को महाराष्ट्र के औरंगाबाद स्थित शाही दीवानखाने में बीकानेर के राजकुमार मोहनसिंह और औरंगाबाद के कोतवाल मुहम्मद मीर तोजक के बीच एक हिरण को लेकर विवाद हुआ। कोतवाल मुहम्मद मीर तोजक औरंगजेब के शहजादे मुअज्जम का साला था तो मोहनसिंह भी शाहजादे के अतिप्रिय थे।
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हिरण के इस विवाद ने देखते ही देखते ही झगड़े का रूप ले लिया| दोनों ओर से तलवारें खींच गई। मोहनसिंह अकेले थे और कोतवाल के साथ उसके कई सहयोगी थे। अत: कुछ क्षण की ही तलवारबाजी के बाद कोतवाल के आदमियों ने मोहनसिंह की पीठ पर पीछे से एक साथ कई वार कर गहरे घाव कर दिए। इन घावों से बहे रक्त की वजह से निस्तेज होकर मोहनसिंह दीवानखाने के खम्बे के सहारे खड़े हुए ही थे कि कोतवाल के एक अन्य आदमी ने उनके सिर पर वार किया, जिससे वे मूर्छित से होकर भूमि पर गिर पड़े।
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दीवानखाने के दूसरी ओर मोहनसिंह के बड़े भाई महाराज पद्मसिंह बैठे थे। झगड़े व अपने भाई के घायल होने का समाचार सुनकर वे दौड़ते हुए आये और देखा कि भाई खून से लतपथ पड़ा है।.
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तब जमीन पर पड़े अपने भाई को धिक्कारते हुए पद्मसिंह ने कहा- इस तरह कायरों की भांति क्यों पड़े हो? मोहनसिंह ने जबाब दिया कि —
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“मेरी पीठ पर धोखे से दिए घावों को देखो और उधर देखो मुझे घायल करने वाला कोतवाल जिन्दा खड़ा है|”
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पद्मसिंह ने उधर नजर डाली तो कोतवाल एक खम्बे के पास खड़ा था। पद्मसिंह अपनी सकेला की बनी आठ पौंड वजनी तीन फूट ग्यारह इंच लम्बी और ढाई इंच चौड़ी तलवार लेकर कोतवाल पर झपट पड़े और एक ही प्रहार में कोतवाल का सिर धड़ से अलग कर दिया।
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कोतवाल पर पद्मसिंह की तलवार का वार इतना शक्तिशाली था कि कोतवाल का सिर काटते हुए तलवार खम्बे में घुस गई। महाराज पद्मसिंह की तलवार का निशान आज भी उक्त खम्बे में देखा जा सकता है।
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अर्थात् : इस शौर्य गाथा पर किसी कवि ने कहा—
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एक घड़ी आलोच, मोहन रे करतो मरण । 
सोह जमारो सोच, करतां जातो करणवत ।।
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भावार्थ:- मोहनसिंह के मरण पर यदि एक घड़ी भर भी विचार करता रह जाता तो हे करणसिंह के पुत्र, तेरा सारा जीवन सोच करते ही बीतता ।

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