सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

जुलाई, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

पन्नाधाय अपने पुत्र का बलिदान देकर राजवंश की रक्षा की

पन्नाधाय अपने पुत्र का बलिदान देकर राजवंश की रक्षा की थी?  पन्नाधाय मेवाड़ के इतिहास में पन्ना धाय का नाम हमेशा स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाता रहेगा मेवाड़ के महाराणा वंश की रक्षा करने का श्रेय पन्नाधाय को ही  हैं वह खीची चौहान वंश की क्षत्राणी थी उदय सिंह को जन्म से पालती थी पन्ना धाय का लड़का चंदन और उदय सिंह हमउम्र थे बनवीर ने विक्रमादित्य की हत्या के बाद राजकुमार उदय सिंह को भी मारने चला ताकि राज्य के अंतिम दावेदार को मारकर निष्कटक राज्य भोगा जाये  मेहलों में कोलाहल से उदय सिंह की धायपन्त्रा को महाराणा को मारे जाने का ज्ञान हो गया था उसने उदय सिंह को महल से बाहर निकाल दिया और उसी के उम्र के अपने पुत्र चंदन को राजकुमार उदय सिंह के पलंग पर उसे सुला दिया बनवीर ने उदय सिंह के महल में आकर पन्ना से पूछा कि उदय सिंह कहां है तो उसने पलंग की तरफ संकेत किया बनवीर ने एक ही वार में उदयसिंह के पलंग पर सोये पन्नाधाय के पुत्र  का काम तमाम कर दिया उदयसिंह को लेकर पन्ना महलों से निकाल आई बनवीर मेवाड़ का स्वामी बनकर राज्य करने लगा | उसने उन सरदारो पर सख्ती   करनी शुरू कर दी जो उसने अकुलीन मानते

लाल किला किसने बनवाया और कब?

लाल किला किसने बनवाया :- हमारे देश में अधिकांश ऐतिहासिक स्थलों का हिंदू निर्माण छुपा कर उसे मुगलों या किसी विदेशी आक्रमणकारी नवाब या बादशाह या सुल्तान द्वारा निर्मित दिखाई जाने की बहुत ही खतरनाक प्रवृत्ति चली आ रही है । इस प्रवृत्ति के चलते देश के इतिहासकारों और लेखकों ने भी उन तथ्यों और प्रमाणों की पूर्णतया उपेक्षा की है जो किसी भी ऐतिहासिक भवन या किले आदि को किसी हिंदू राजा द्वारा निर्मित स्थापत्य कला का एक बेजोड़ नमूना सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं । पी0एन0 ओक के शब्दों में कहें तो ये लोग अपने तथाकथित बौद्धिक अहंकार के कारण गर्दन ऊपर उठाकर चलते हैं , और नीचे पैरों में पड़े अनेकों प्रमाणों को कुचलते चले जाते हैं । इन लोगों की इसी खतरनाक प्रवृत्ति के चलते दिल्ली का लाल किला अनेकों प्रमाणों के होने के उपरांत भी इन लोगों ने मुगल बादशाह शाहजहां के नाम कर दिया है । जबकि प्रमाण ये भी हैं कि मुगलों से पहले तुर्कों की राजधानी भी दिल्ली रही और उनसे पहले अनेकों हिंदू सम्राट और राजाओं की राजधानी भी दिल्ली रही है । स्वाभाविक रूप से प्रश्न किया जा सकता है कि यदि मुगलों से पहले भी दिल्ली रा

रक्षाबंधन का इतिहास बताएगे -हिन्दी में

रक्षाबंधन का इतिहास बताएगे -हिन्दी में  रक्षाबंधन त्यौहार  का इतिहास व्दापर युग में भगवान विष्णु के समय से आरंभ होता है दैत्य का राजा बलि ने स्वर्ग व मृत्यु  लोक पर अपना अधिकार करने के लिए 110  यज्ञ पूर्ण  करता है इसलिए देवताऔ को स्वर्ग लोक की रक्षा के लिए भगवान विष्णु से चाहिता के लिए कहते हैं  भगवान विष्णु  वामन अवतार लेते हैं |और भगवान विष्णु राजा बालि के राज्य मे  जाते हैं |राजा बालि यज्ञ पूर्ण कर बह्रामणो को दान देता है, उस समय भगवान वामन अवतार में राजा बालि से भीक्सा में तीन कदम जमीन मांगते है राजा बालि खुश होकर कहता है बह्मण देवता ले लिजीये | राजा बालि तीन कदम जमीन दान कर देता है भगवान ने पहले कदम में स्वर्ग लोक मापते है और दूसरे कदम में मृत्यु लोक माप लेते हैं और भगवान वामन बोलते हैं कि में तीसरा कदम कह पर रहखु तो राजा बालि अपना सर पर रखने को कहते हैं तो भगवान तीसरा कदम राजा बालि के सर पर रखते हैं जिससे राजा बालि जमीन के गर्भ में चले जाते है उस समय भगवान से वचन लेता है राजा बालि कि आप मेरे सामने रहो यह वचन लेता है |भगवान राजा बालि के द्वारपाल बनते देख माता लक्ष्मी

राजस्थान के 5 लोक नृत्य। जाने कोनसे है?

 राजस्थान के लोक नृत्य आइए हम राजस्थान के लोक नृत्यों के बारे में जानें। राजस्थान के लोक नृत्य लुभावने और आकर्षक हैं। वे आपको नर्तकियों के साथ एक या दो टैप करने के लिए प्रेरित करने के लिए बाध्य हैं। राजस्थानी नृत्य अनिवार्य रूप से लोक नृत्य हैं। उनकी उत्पत्ति ग्रामीण रीति-रिवाजों और परंपराओं में है। राजस्थान के ये पारंपरिक नृत्य बिल्कुल रंगीन और जीवंत हैं। उनका अपना महत्व और शैली है। वे आकर्षक और कुशल हैं। वे हर आयु वर्ग द्वारा आनंद ले रहे हैं। राजस्थान के कुछ लोकप्रिय लोक नृत्य रूपों को यहां दिया गया है 1- घूमर नृत्य यह राजस्थान का सबसे लोकप्रिय लोक नृत्य रूप है। यह मूल रूप से महिलाओं के लिए एक सामुदायिक नृत्य है। वे इसे संदिग्ध घटनाओं और अवसरों के दौरान प्रदर्शन करते हैं। 'घूमर' नाम 'घूमना' शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ है सुंदर ढंग से गेरेट करना। महिला नर्तक अपने चेहरे को घूंघट से ढकती हैं। वे पारंपरिक गीत गाते हुए नृत्य करती हैं। वे गोलाकार आंदोलन करती हैं जो उनके बहते हुए घाघरों के शानदार रंगों को प्रदर्शित करती हैं। । 2- कालबेलिया नृत्य यह प्राचीन लोक

चुरु के किले का इतिहास 1694

चुरू के किले का इतिहास 1739         भारत के राजस्थान राज्य का चूरू में स्थित दुर्ग जहा के शासक ने शत्रुओं पर चांदी के गोले दाग कर इतिहास में अलग ही छाप छोड़ दी। चुरु का प्राचीन नाम राजगढ है । चूरू दुर्ग : विभिन्न स्रोतों से ज्ञात होता है कि किले का निर्माण 1739 में हुआ। कुछ का मानना है कि इसका निर्माण ठाकुर कुशल सिंह ने 1694 ईस्वी में करवाया था। ठाकुर कुशल सिंह के वंशज ने 1857 के विद्रोह में अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। इससे अंग्रेजी हुकूमत भड़क उठी फिर बीकानेर से सेना बुलाई और किले को घेर लिया।   किले कि सुरक्षा केसे की ठाकुर कुशल सिंह ने ?दोनों तरफ से तोपों ने जमकर गोले बरसाए। एक समय ऐसा आया गया जब किले में गोले खत्म हो गया। यह सब देखते हुये लुहारों ने मोर्चा संभाला। लोहे को गलाकर गोले बनाने शुरू कर दिए लेकिन, वे भी समाप्त हो गए। और गोले बनाने के लिए सामग्री नहीं बची। तब चूरू के सेठ—साहूकारों ने की रक्षा के लिए अपनी तिजोरियां खोल दी और चांदी लाकर ठाकुर के समर्पित कर दी। लुहारों और सुनारों ने मिलकर चांदी के गोले बनाए फिर इनमें बारूद भरा गया था। तापों ने जैसे

कुँवर वीर पृथ्वीसिंह का इतिहास

कुँवर वीर पृथ्वीसिंह का इतिहास -जोधपुर के शासक थे।  गौरवगाथा कुंवर पृथ्वी सिंह मारवाड़ ,एक ऐसा वीर बालक के इतिहास   बारे में हम अवगत कराएगे जिसकी बहादुरी से दिल्ली के बादशाह औरंगजब के भी होस उड़ गई । वह है राजा जशंवत सिंह के लाडले वीर पुत्र पृथ्वीसिंह एक बार एक शिकारी जंगल से शेर पकड कर लाता हैं कुछ औरंगजेब के मन्त्री उस शिकारी को बादशाह के दरबार में  शेर को लाने को कहता हैं। वह शिकारी शेर को लोहे के पिंजरे में बंद कर लाता है ओरंगजेब अपने दरबार में पिंजरे में बंद भयानक शेर को देख इतराते हुए बोला “इससे खतरनाक शेर नही हो सकता है” ! ओरंगजेब के दरबार में बैठे उसके गुलाम मन्त्री  ने भी उसकी हामी भरते बोले । हाँ हुजूर ऐसा शेर हमारे राज्यो में कही भी नही है यह बात जोधपुर के  महाराजा जशवंत सिंह को ना बजुर थी  महाराजा जशवंत सिंह ने ओरंगजेब की इस बात से असहमति जताते हुए कहा कि - “इससे भी अधिक शक्तिशाली शेर तो हमारे पास है।" महाराजा जशवंत सिंह की बात को सुनकर मुग़ल बादशाह ओरंगजेब बड़ा क्रोधित हो उठा।उसने जशवंत सिंह से कहा कि यदि तुम्हारे पास इस शेर से अधिक शक्तिशाली शेर है, तो

सवाई जयसिंह की वेधशाला

सवाई जयसिंह की वेधशाला  जयपुर के इतिहास के पन्नों से जिस नगर-निर्माता, वैज्ञानिक-योद्धा और कूटनीतिज्ञ का नाम कभी धुंधला नहीं पड़ने वाला- ऐसे सवाई जयसिंह को भला कौन जयपुरवासी भूल सकता है? उनका उतार-चढ़ाव से भरा जीवन-चरित कई दृष्टियों से अनूठा है। एक असाधारण वैज्ञानिक-राजा की प्रतिमा- जिसके आरंभिक जीवन में झंझावातों, युद्धों और राजनीतिक उठापटक के अनगिनत दिन दर्ज हैं। पर ये जयसिंह ही थे जिन्होंने भयानक समयों का सामना करते हुए भी अपने भीतर गहरे विद्यानुराग, खगोल-विज्ञान के तलस्पर्शी वैज्ञानिक अध्ययन और शोध के प्रति अपने अनुराग की लौ को कभी मद्धम पड़ने नहीं दिया। ताज्जुब नहीं, पंडित जवाहरलाल नेहरू जैसे लेखक खुद भी उनका उल्लेख अपनी पुस्तक 'भारत एक खोज' में सम्मानपूर्वक करते हैं। जयपुर नगर बसाया था सवाई जयसिंह ने सवाई जयसिंह (3 नवम्बर,1688 - 21 सित.1743) अठारहवीं सदी में भारत में राजस्थान प्रान्त के राज्य आमेर के सर्वाधिक प्रतापी शासक थे। आमेर से दक्षिण में छह मील दूर सन् 1727 में एक बेहद सुन्दर, सुव्यवस्थित, सुविधापूर्ण और शिल्पशास्त्र के सिद्धांतों के आधार पर आकल्पित

झाला मानसिंह का इतिहास

झाला मानसिंह का इतिहास झाला मान की जयंती 18 जून 1576 ( हल्दीघाटी शौर्य दिवस ) .  के राजराणा झाला मन्ना   का इतिहास की लगातार 7 पीढ़ियों ने 1527 से 1576 के काल खण्ड में मेवाड़ व राजपूताना पर विदेशी हमलावरों से युद्ध करते हुए मैदान में प्राण न्यौछावर कर दिये थे।  झाला मन्ना का परिवार हल्वद काठियावड गुजरात से राज्य छोड़ कर महाराणा रायमल के शासनकाल मे मेवाड़ आ गया था। मेवाड़ के कई गावों को झालाओं ने अपने अधिकार में कर मेवाड़ का आधिपथ्य स्थापित किया। तब 7 वर्ष तक बड़ीसादड़ी का ठिकाना राजराणा अज्जा को जागीर के रूप में दिया। अज्जा से लेकर लगातार सात पीढ़ीयां मेवाड़ के लिय सर्वस्व समर्पण करती रही। मेवाड़ के भविष्य को प्रताप के हाथों में सुरक्षित समझकर उनके साथ सलाहकार के रूप में रहकर झाला मन्ना प्रताप के हर महत्वपूर्ण कार्य में साथ रहे तथा साथ में संघर्ष किया। 1572 से 1576 तक प्रताप के सैन्य संगठन में अग्रणी भूमिका निभाकर झालामन्ना ने नाकाबन्दी करने में कामयाबी हासिल की।उन्हें हर समय युद्ध की अपरिहार्यता का आभास हो जाता था और सदैव आगे होकर मैदान में डट जाते थे। 18 जून 1576 को हल्

भारत की प्राचीनकाल का हत्यार-तलवार का इतिहास

भारत की प्राचीनकाल का हत्यार-तलवार का इतिहास  भारत में तलवार का इतिहास राजा महाराजाऔ के काल से चलता आ रहा है जितने भी लडाई लडी वह तलवारो से लडी जाती थी एडिनबर्ग में रानी की गैलरी में प्रदर्शन के लिए भारत से तलवार 18 वीं शताब्दी के अंत तक आए। इस तंवर ने पूरी तरह से पानी से भरे क्रूसिबल स्टील को जाली के रूप में उकेरा जो ब्लेड को बहुत गहरे पानी का पैटर्न देता है और यह अलवर के महाराजा मंगल सिंह से फारस के वेल्स के राजकुमार (एडवर्ड सप्तम) को समर्पण के साथ सोने में जड़ा हुआ है और ब्लेडस्मिथ का नाम है। मुहम्मद इब्राहिम। शेर के सिर के रूप में एक अंगुली की छाप के साथ जाली को धुंधला कर दिया जाता है महाराजा बख्तावर सिंहजी का तलवारो का उल्लेख ? और फारसी और पोपियों और तितलियों में सोने के शिलालेखों के साथ डाला जाता है। अल्ट के शिलालेखों में अलवर के एक पूर्व महाराजा बख्तावर सिंह (1779-1815) का उल्लेख है। शिलालेखों से पता चलता है कि मूलाधार ब्लेड से पहले का है। अलवर के शिलालेख मे तलवार का भौतिक संरचना से बनाई गई तलवारे है। और बहुत ही मजबूत है वह बहुत ही  धारदार हैं। महाराजा बख्तावर सिंह

महाराव शेखा जी की वंशावली 1490

महाराव शेखा जी की वंशावली  राव शेखा का इतिहास ,जन्म सं 1490 वि. में बरवाडा व नाण के स्वामी उनके पिता मोकल सिंहजी कछवाहा थे माताजी रानी निरबाण जी  १२ वर्ष की छोटी आयु में इनके पिता का स्वर्गवास होने के उपरांत राव शेखा वि. सं. 1502 में बरवाडा व नाण के 24 गावों की जागीर के उतराधिकारी हुए कच्छवाह राज्य का विस्तार करना आमेर नरेश इनके पाटवी राजा थे राव शेखा अपनी युवावस्था में ही आस पास के पड़ोसी राज्यों पर आक्रमण कर अपनी सीमा विस्तार करने में लग गए और अपने पैत्रिक राज्य आमेर के बराबर ३६० गावों पर अधिकार कर एक नए स्वतंत्र कछवाह राज्य की स्थापना की नरेश राजा चंद्रसेन को युध्द में हराना  अपनी स्वतंत्रता के लिए राव शेखा जी को आमेर नरेश रजा चंद्रसेन जी से जो शेखा जी से अधिक शक्तिशाली थे छः लड़ाईयां लड़नी पड़ी और अंत में विजय शेखाजी की ही हुई,अन्तिम लड़ाई मै समझोता कर आमेर नरेश चंद्रसेन ने राव शेखा को स्वतंत्र शासक मान ही लिया राव शेखा ने अमरसर नगर बसाया , शिखरगढ़ , नाण का किला,अमरगढ़,जगन्नाथ जी का मन्दिर आदि का निर्माण कराया जो आज भी उस वीर पुरूष की याद दिलाते है ।राव शेखा जहाँ वीर,

बीकानेर के महाराजा गंगा सिंहजी ने 1887

             महाराजा गंगा सिंहजी ने 1887  महाराजा गंगा सिंहजी ने 1887, में अपने भाई को गद्दी पर बैठाया, जब वह नाबालिग थे। अजमेर में मेयो कॉलेज में कुछ वर्षों के बाद, उन्होंने राज्य के प्रमुख के रूप में अधिकार संभालने से पहले सेना में प्रशिक्षण लिया। उस क्षमता में, वह शब्द के हर अर्थ में एक आधुनिकतावादी था। उन्होंने बाल विवाह को खत्म करने, अदालतों का गठन करने और न्यायिक प्रणाली का आधुनिकीकरण करने के लिए एक कानून पेश किया, जिससे उनके राज्य में कानून का शासन लागू हुआ। उन्होंने अपने लोगों के लिए एक बचत बैंक भी स्थापित किया और राज्य सेवा के कर्मचारियों के लिए एक बीमा योजना शुरू की। मेरे अपने पूर्वजों में से कुछ नागरिक और सैन्य दोनों में थे। लेकिन उनका सबसे बड़ा सुधार उपाय शायद सिंचाई के क्षेत्र में था। उनका राज्य अविभाजित भारत के रेगिस्तानी क्षेत्र में था। पानी की कमी थी और ग्रामीण आबादी गरीब थी। 1899-1900 की अवधि में, बीकानेर और आसपास का क्षेत्र एक बड़े अकाल के अधीन था। इस तरह के भयानक अकाल को दोहराए जाने से बचने के लिए, महाराजा ने बीकानेर राज्य में कृषि के क्षेत्र को बढ़ाने के

वीर जदुनाथसिंह राठौर का इतिहास 1948

वीर जदुनाथसिंह राठौर का इतिहास 1948 नौशेरा सेक्टर का यह क्षेत्र, औऱ कड़कड़ाती ठंड 6 फरवरी 1948 का दिन। कोहरे के कारण कुछ साफ साफ नही दिख रहा था मगर राजपुताना 1 के 10 जवान वहां अपनी खंदकों में जमे थे। अचानक उन्हें कुछ आकृतियां दिखी और धीरे धीरे उनकी संख्या बढ़ने लगी। ये पाकिस्तानी सिपाही औऱ पठान थे जो हजारो की तादाद में आगे बढ़ रहे थे। असलहों औऱ हथियारों से लैस इस संख्याबल को देखकर जदुनाथ सिंह की भी पेशानी पर पसीना आने लगा था। उसके पास दो ही रास्ते थे " लड़ो औऱ मरो " या "आत्मसमर्पण"! लेकिन शौर्य गाथाएं कायरों की नही लिखी जाती। यदुनाथ सिंह ने दुश्मन के नजदीक आने का इंतजार किया। जैसे ही दुश्मन की पहली पंक्ति उनके करीब तक पहुंची यदुनाथ ने फायर का आदेश दिया, तड़ तड़ तड़ा तड़ मशीनगनों से गोलियां दुश्मन से मुलाकात करने लगी। एक बार तो दुश्मन में भगदड़ ही मच गई पर अगले ही क्षण वे भी गोलियां बरसाने लगे, टिड्डी दल जैसे आगे बढ़ता है ऐसे वे लोग आने लगे, जदुनाथ के साथियों ने हथगोले फेंकने शुरू किए, पर उनमे से कुछ बिल्कुल करीब आ गए। अब केवल हाथापाई की लड़ाई बचती थी, राजपुताना का

राजा मानसिंह का इतिहास 1550 -हिन्दी में

राजा मानसिंह का इतिहास 1550 21 दिसम्बर, 1550 को राजा भगवान दास की पटरानी भागवती की कूख से जन्मे मानसिंह राजस्थान के उन राजा-महाराजाओं में हैं जिन्होंने अपने समय में असीम ख्याति अर्जित की और इतिहास बनाया। यह विडम्बना ही है कि समय ने उन्हें नहीं समझा और जैसी प्रसिद्धि उन्हें मिलनी चाहिए थी वह उन्हें प्राप्त नहीं हो सकी। किया आप राजा हम्मीर देव चौहान की चुनौतीया को जानते हो  सम्भवत: इसका कारण था कि वे तत्कालीन मुगल सम्राट अकबर की सेवा में रहे और हल्दीघाटी जैसे स्वतंत्रता-संघर्ष में प्रताप के विरुद्ध लड़े। भारतीय जन-मानस में उनकी छवि बिगड़ने का एकमात्र कारण था। जबकि वे वीर साहसी और कुशल नीतिज्ञ थे। अपने जीवन में 77 युद्धों को अंजाम दिया और लगभग सभी में विजयी रहे। हल्दीघाटी युद्ध एक अपवाद कहा जा सकता है। यूं अब तक हल्दीघाटी में भी मानसिंह की विजय का उल्लेख होता आया है लेकिन अब जो तथ्य सामने आये हैं, इसे एक अनिर्णायक युद्ध ही माना जाने लगा है। हल्दीघाटी युद्ध को यदि अपवाद मान लेते हैं तो यह कहना ही होगा कि राजा मानसिंह एक अपराजेय योद्धा थे। मानसिंह द्वारा लड़े युद्ध प्रचण्ड और विपर

मारवाडी की पाग पागडियाँ

                          मारवाडी की 'पाग' पागडियाँ राजपूताना (वर्तमान राजस्थान) में पुरातन काल से 'सवा सेर सूत' सिर पर बांधने का रिवाज एक परम्परा के रुप में आज दिन तक प्रचलित रहा है। पाग व पगड़ी मनुष्य की पहचान कराती है कि वह किस जाति, धर्म, सम्प्रदाय, परगना - राजघराणा व आर्थिक स्तर का है। उसके घर की कुशलता का सन्देश भी पगड़ी का रंग देती है। मारवाड़ के राजपूतों में तो पाग पगड़ी का सामाजिक रिवाज आदि काल से प्रचलित रहा है। ऐसा कहा जाता है कि राजस्थान में 12 कोस पर बोली बदलती है, उसी प्रकार 12 कोस पर साफे के बांधने के पेच में फरक भी आता है। प्रत्येक परगने में विभिन्न जातियों के पाग-पगड़ियों के रंगों में, बांधने के ढंग में एवं पगड़ी के कपड़े में विभिन्नता इनमे राजपूताना पगड़ी सबसे भव्य है। राजस्थान में पगड़ी के बांधने के ढंग, पेच एवं पगड़ी की कसावट देख कर बता देते हैं कि वह व्यक्ति कैसा है ? अर्थात् पाग-पगड़ी मनुष्य की शिष्टता, चातुर्य व विवेकशीलता की परिचायक होती है। राजपूताना में पगड़ी सिर्फ खूबसूरत एवं ओपमा बढ़ाने को नहीं बांधते हैं बल्कि पगड़ी के साथ मान, प्रतिष्ठा, मर्

राव हमीर देव चौहान की चुनौती - हिन्दी में

राव हमीर देव चौहान की चुनौती शौर्यपूर्ण व्यक्तित्व , चौहान वंश के कीर्ति स्तंभ , वचन परायण , 16 युद्धों के विजेता , शरणागत रक्षक राव जैत्र सिंह के तीसरे पुत्र रणथंभौर शासक महाराजा राव हमीर देव सिंह चौहान जी की चुनौती : हठी हमीर देव चौहान रणथंभौर भाग्य और पुरुषार्थ में विवाद उठ खङा हुआ । उसने कहा मैं बङा दूसरे ने कहा मैं बङा । विवाद ने उग्र रुप धारण कर लिया । यश ने मध्यस्थता स्वीकार कर निर्णय देने का वचन दिया । दोनों को यश ने आज्ञा दी कि तुम मृत्युलोक में जाओ । दोनों ने बाँहे तो चढा़ ली पर पूछा-'महाराज ! हम दोनों एक ही जगह जाना चाहते हैं पर जायें कहाँ ? हमें तो ऐसा कोई दिखाई ही नहीं देता । यश की आँखें संसार को ढूंढते-ढूंढते हमीर पर आकर ठहर गई । वह हठ की चुनौती थी । हमीर ने कहा-'स्वीकार है । एक मंगलमय पुण्य प्रभात में हठ यहाँ शरणागत वत्सलता ने पुत्री के रुप में जन्म लिया । वह वैभव के मादक हिंडोली में झूलती, आङ्गन में घुटनों के बल गहकती, कटि किंकण के घुंघरुओं की रिमझिम के साथ बाल-सुलभ मुक्त हास्य के खजाने लुटाती एक दिन सयानी हो गई । स्वयंवर में पिता ने घोषणा की-'इस अ