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History of veer jaymalji medtiya

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History of veer rav jaymalji medtiya
वीर राव जयमलजी का जन्म 17 सिप्तम्बर 1507 ई. (स.1544 ) को हुवा था और विक्रम सम्वत 1600 में मेड़ता के स्वामी बने। वे मेड़ता के पांचवें राजा थे (आगे चलकर चितौड़ [मेवाड़] सेना के प्रमुख सेनापति और उदैसिंहजी के सैन्य सलाहकार बने ) । जयमलजी बड़े वीर थे। .
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एक बार की घटना है जब राव मालदेवजी ने मेड़ता पर आक्रमण किया तो उन्हें जयमलजी से पराजीत होना पड़ा था। मालदेवजी मेड़ता छीनना चाहते थे उन्हें फिर दूसरी बार 1557 ई. में मेड़ता पर आक्रमण किया और जयमलजी को हराकर मेड़ता पर अधिकार कर लिया। मालदेवजी ने मेड़ता को जीतकर आधा मेड़ता जयमलजी के भाई जगमालजी को दे दिया। लेकिन कुछ समय बाद जयमल जी ने 1563 ई. [विक्रम सम्वत 1620 में] मेड़ता पर पुन: अधिकार कर लिया ( ज्ञातव्य हो कि मेड़ता ने कुल 16 बार जोधपुर को युद्ध में पराजित किया था ) l समय बाद जयमलजी ने अकबर के विद्रोही सरफुधीन ( यह जयमल जी का मित्र था जिसे परिवार सहित इन्होंने अजमेर से सासुरक्षित निकाल कर अपने यहां शरण दी ) को शरण देकर आफत मोल लेली जिसके चलते अकबर की सेना ने मेड़ता पर अधिकार कर लिया। ( यह वही समय था जब जयमल जी अकबर से सारी गलतफहमियां दूर करने दिल्ली जाने वाले थे लेकिन उसी समय उन्हें महाराणा उदय सिंह जी का संदेशा प्राप्त हुआ और वे चितौड़ चले गए ।)
15 वीं शताब्दी में दिल्ली के मुग़ल बादशाह अकबर ने मेवाड़ [चित्तौड़] पर आक्रमण की योजना बनायी और खुद 60000 मुगल सैनिको सहित मेवाड़ आया। उस वक़्त मेवाड़ [चित्तौड़] के महाराणा उदयसिंह मुगल सैनिको से लोहा लेने को तैयार हुए और उनके पूर्वजों बाप्पा रावल, राणा हमीर, राणा कुम्भा और राणा सांगा के मेवाड़ी वंसज भी उनका साथ देने के लिए तैयार हुए लेकिन मेवाड़ के तत्कालीन सभी ठाकुर और उमराव ने उदयसिंहजी को मुगल सैनिको से से युद्ध न करने की सलाह दी गयी कहा की, मेवाड़ हित इसी में है, की आप युद्ध न करें क्योंकी आपको कुंभलगढ़ में सेना मजबूत करनी है। मगर उदयसिंहजी के ना मानने पर सभी  उमरावो व ठाकुरो ने उन्हें कुंभलगढ़ भेज दिया और फैसला किया की, मेड़ता के राव दूदाजी पोते वीरो के वीर शिरोमणि जयमलजी मेड़तिया को चित्तोड़ का सेनापति बनाकर भार सौंप दिया जाय और जयमलजी के साले जी पत्ताजी चुण्डावत को उनके साथ नियुक्त कर दिया जाय।
और जयमलजी के साले जी पत्ताजी चुण्डावत को उनके साथ नियुक्त कर दिया जाय।
 जयमलजी को चितौड़ का भार सौंपनें की खबर मिलते ही जयमल जी और भाई प्रताप सिंह और दूसरे भाई भतीजे सभी राठौड़ चित्तोड़ की और निकल पड़े। मेड़ता से निकलने के बाद  अजमेर से आगे मगरा क्षेत्र में उनका सामना वहां बसने वाली रावत जाति के कुछ लूटेरो से हुवा, भारी लाव लश्कर और जनाना के साथ जयमल जी को लूटेरो ने रोक दिया एक लूटरे ने सिटी बजायी देखते ही देखते एक पेड़ तीरो से भर गया सभी समझ चुके थे की वे लूटेरो से घिरे हुए है।
तभी भाई प्रताप सिंह ने कहा की "अठे या वटे" जयमल जी ने कहा "वटे" तभी जनाना आदि ने सारे गहने कीमति सामान वही छोड़ दिया और आगे चल पड़े लूटेरो की समझ से ये बाहर था कि एक राजपूत सेना जो तलवारो भालो से सुसज्जित है वो बिना किसी विवाद और लडे इतनी आसानी से सारे गहने कैसे छोड़ कर जा सकते है। अभी जयमल की सेना अपने इष्ट नाथद्वारा में श्रीनाथ जी के दर्शन ही कर रही थी कि तभी लूटेरे फिर आ धमके और लुटेरों के सरदार ने जयमलजी से कहा कि, ''ये "अटे और वटे" क्या है ?''
तब वीर जयमलजी मेड़तिया ने कहा की यहाँ तुमसे धन के लिए लडे या वहा [वटे] चित्तौड़ में तुर्को से ?
यह सुन कर लूटेरे सरदार की आँखों में आंसू आ गए और उसने जयमल जी के पैरों में गिर कर माफ़ी मांगी और अपनी टुकड़ी को भी सेना में शामिल करने की बात कही, पर जयमल जी ने कहा की तुम लूटपाठ छोड़ यहीं मुगलो का सामना करो। अतः लूटेरे आधे रास्ते वीरो को छोड़ने आये और फिर लोट गए।
अकबर ने जब मगसिर बदी 6विक्रम सम्वत1624 को चितौड़ घेर लिया संकट की इस घड़ी में जयमलजी ने उदयसिंह को चितौड़ से बाहर भेजकर चितौड़ की रक्षा का भार आपने ऊपर लेलिया
और मेड़ता के सभी वीर अब चित्तोड़ में प्रवेश कर गए और किले की प्रजा को सुरक्षित निकालने में जुटे ही थे कि, तभी खबर मिली की मुग़ल सेना ने 10 किमी दूर किले के नीचे डेरा जमा दिया है। सभी 9 दरवाजे बंद किये गए 8000 राजपूत वीर वही किले में रहे।
मुगलो ने किले पर आक्रमण किया पर वो असफल रहे आखिर में मुगलो ने किले की दीवारो के निचे सुरंगे बनाई पर रात में राजपूत फिर उसे भर देते थे, किले के दरवाजो के पास की दीवारे तोड़ी पर योद्धा उसे रात में फिर बना देते थे। ये सिलसिला पांच माह तक चलता रहा पर किले के निचे मुगलो की लाशे बिछती रही। उस वक़्त मजदूरी इंतनी महगी हो गयी की एक बाल्टी मिट्टी लाने पर एक मुग़ल सैनिक को एक सोने का सिक्का दिया गया। वहाँ मिटटी सोने से अधिक महंगी हो गयी थी।
आखिर अकबर ने जयमलजी के पास अपना दूत भेजकर प्रलोभन दिया कि अगर मेरी अधीनता स्वीकार करो तो जयमल को उसके पुरखों का राज्य मेड़ता सहित पूरे मेवाड़ का भी राजा बना दिया जायेगा। तब अकबर के दूत ने राव जयमलजी मेड़तिया के सामने हाजिर होकर कहा कि:-
है गढ़ म्हारो म्है धणी,असुर फ़िर किम आण।
कुंच्यां जे चित्रकोट री दिधी मोहिं दीवाण।।
जयमल लिखे जबाब यूँ सुनिए अकबर शाह।
आण फिरै गढ़ उपरा पडियो धड पातशाह।।
अर्थात अकबर ने कहा जयमल मेड़तिया तू अपने प्राण चित्तोड और महाराणा के लिए क्यों लूटा रहा है ? तू मेरा कब्ज़ा होने दे में तुझे तेरा मूल प्रदेश मेड़ता और मेवाड़ दोनों का राजा बना दूंगा ।
पर जयमलजी ने इस बात को नकार कर उत्तर दिया मै अपने स्वामी के साथ विश्वासघात नही कर सकता। मेरे जीते जी तू अकबर तुर्क यहाँ प्रवेश नही कर सकता मुझे महाराणा यहाँ का सेनापति बनाकर गए है। अकबर के संधि प्रस्ताव को जयमलजी ने ठुकरा दिया
अब अकबर घबरा गया और उसने अजमेर शरीफ से दुवा मांगी कि अगर वो इस युद्ध में कामयाब हो गया तो वो अजमेर जियारत के लिए जरुर जाएगा।
एक दिन रात में जयमलजी किले की दिवार ठीक करवा रहे थे और अकबर की नजर उन पर पड़ गयी। तभी अकबर ने अपनी बन्दुक से एक गोली चलाई जो जयमलजी के पैरो पर आ लगी और वो घायल हो गए। गोली का जहर शरीर में फैलने लगा। अब राजपूतो ने कोई चारा न देखकर जौहर और शाका का निर्णय लिया।आखिर वो दिन आ ही गया 6 माह तक किले को मुग़ल भेद नही पाये और रसद सामग्री खाना आदि खतम हो चुकी था। किले में आखिर में एक ऐसा निर्णय हुआ जिसका अंदाजा किसी को नही था और वो निर्णय था जौहर और शाका का और दिन था 23 फरवरी 1568 ई.इस दिन चित्तौड़ किले में कुण्ड को साफ़ करवाया गया गंगाजल से पवित्र किया गया ।बाद में चन्दन की लकड़ी और नारियल से उसमे अग्नि लगायी गयी उसके बाद जो हुआ वो अपने आप में एक नया इतिहास था।
हजारों राजपूतानिया अपने अपनी पति के पाव छूकर और अंतिम दर्शन कर एक एक कर इज्जत कि खातिर आग में कूद पड़ी और सतीत्व को प्राप्त हो गयी ये जौहर नाम से जाना गया।
रात भर 8000 राजपूत योद्धा वहा बैठे रहे और सुबह होने का इन्तजार करने लगे । सुबह के पहले पहर में सभी ने अग्नि की राख़ का तिलक किया और देवी पूजा के बाद सफ़ेद कुर्ते पजामे और कमर पर नारियल बांध तैयार हुए।
अब जौहर के बाद ये सभी भूखे शेर बन गए थे। मुग़ल सेना चित्तोड किले में हलचल से पहले ही सकते में थी। उन्होंने रात में ही किले से अग्नि जलती देखकर समझ आ गया था कि जौहर चल रहा है और कल अंतिम युद्ध होगा।
सुबह होते ही एकाएक किले के दरवाजे खोले गए।
जयमल जी के पाँव में चोट लगने की वजह से वो घोड़े पर बैठने में असमर्थ थे तो वो वीर कल्ला जी राठौड़ के कंधे पर बेठे।
युद्ध शुरू होते ही वीर योद्धाओ ने कत्ले आम मचा दिया अकबर दूर से ही सब देख रहा था।जयमल जी और कल्ला जी ने तलवारो का जोहर दिखाया और 2 पाव 4 हाथो से मारकाट करते गये उन्हें देख मुग़ल भागने लगी।
स्वयं अकबर भी यह दृश्य देखकर अपनी सुध बुध खो बैठा। उसने चतुर्भुज भगवांन का  नाम सुन रखा था।
"जयमल बड़ता जीवणे, पत्तो बाएं पास।
हिंदू चढिया हथियाँ चढियो जस आकास"।।
पत्ता जी प्रताप सिंह जी जयमल जी कल्ला जी आदि वीरो के हाथो से भयंकर मार काट हुयी ।
सिर कटे धड़ लड़ते रहे।
"सिर कटे धड़ लड़े रखा रजपूती शान "
दो दो मेला नित भरे, पूजे दो दो थोर॥
जयमल जी के एक वार से एक साथ दो-दो मुग़ल तुर्क साथ कटते गए किले के पास बहने वाली गम्भीरी नदी भी लाल हो गयी। सिमित संसाधन होने के बाद भी राजपूती सेना मुगलो पर भारी पड़ी। युद्ध समाप्त हुआ कुल 48000 सैनिक मारे गए जिनमे से पुरे 8000 राजपूत वीरगति को प्राप्त हुए तो बदले में दुश्मन की सेना के 40000 मुग़लो को भी मौत के घाट उतरा गया।
बचे तो सिर्फ अकबर के साथ 20000 मुग़ल बाद में अकबर किल्ले में गया वहा कुछ न मिला। तभी अकबर ने चित्तौड़ की शक्ति कुचलने के लिये वहाँ कत्लेआम का आदेश दिया और 30 हजार आम जनता को क्रूरता से मारा गया। यह कत्लेआम अकबर पर बहुत बड़ा धब्बा है।
अकबर जयमलजी और पत्ताजी की वीरता से प्रभावित हुआ और नरसंहार का कलंक धोने के लिये उसने उनकी अश्ववारुड मुर्तिया आगरा के किले के मुख द्वार पर लगवायी।
वही कल्लाजी घर घर लोकदेवता के रूप में पूजे गए मेवाड़ महाराणा से वीरता के बदले वीर जयमलजी मेड़तिया के वंशजो को बदनोर का ठिकाना मिला तो पत्ता जी चुण्डावत के वंशज को आमेट का ठिकाना मिला। और प्रताप सिंह मेड़तिया के वंशज को घाणेराव ठिकाना दिया गया।
ये वही जयमलजी मेड़तिया थे, जिन्हीने एक ही झटके में हाथी की सिर काट दिया था।
ये वही वीर जयमलजी मेड़तिया थे,जो महाराणा प्रताप के सैनिक(अस्त्र शस्त्र) गुरु भी थे।
ये वही वीर जयमलजी मेड़तिया थे,जो स्वामिभक्ति को अपनी जान से ज्यादा चाहा अकबर द्वारा मेवाड़ के राजा बनाए जाने के लालच पर भी नही झुके। अकबर की सेना से लड़ते हुए वि.सं. 1624 में हुए जयमलजी ने चितौड़ के तीसरे शाके में वीरगति प्राप्त की।

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