History of Pabuji Rathore
Pabuji Rathore (पाबूजी राठौड़)उस वीर ने फेरे लेते हुए ही सुना कि देवल बाई की गाय जिंदराव लेकर जा रहा है यह सुनते ही pabuji वह से आधे फेरों के बीच ही उठ खड़ा हुआ और तथा गाय की रक्षा करते हुए वीर-गति को प्राप्त हुआ
पाबूजी राठौड़ का जन्म वि.स. 1313 को जोधपुर के निकट कोलू मढ़ में हुआ था, पिता का नाम धाँधलजी राठौड़ था ।जब पाबूजी युवा हुए तो अमरकोट के सोढा राणा के यहाँ से सगाई का नारियल आया. सगाई तय हो गई. पाबूजी ने देवल नामक चारण देवी को बहन बना रखा था. देवल के पास एक बहुत सुन्दर और सर्वगुण सम्पन्न घोड़ी थी. जिसका नाम था केसर कालवी .देवल अपनी गायों की रखवाली इस घोड़ी से करती थी इस घोड़ी पर जायल के जिंदराव खिचीं की आँख थी. वह इसे प्राप्त करना चाहता था. जींदराव और पाबूजी में किसी बात को लेकर मनमुटाव भी था. विवाह के अवसर पर पाबूजी ने देवल देवी से यह घोड़ी मांगी. देवल ने जिंदराव की बात बताई. तब पाबू ने कहा कि आवश्यकता पड़ी तो वह अपना कार्य छोड़कर बिच में ही आ जायेगे. देवल ने घोड़ी दे दी.बारात अमरकोट पहुची. जिंदराव ने मौका देखा और देवल देवी की गायें चुराकर ले भागा. पाबूजी जब शादी के फेरे ले रहे थे. तब देवल के समाचार पाबू को मिले कि जिंदराव उनकी गायें लेकर भाग गया है. समाचार मिलते ही अपने वचन के अनुसार शादी के फेरों को बिच में ही छोड़ कर केसर कालवी घोड़ी पर बैठकर जिंदराव का पीछा किया.
पाबूजी महाराज ने दो फेरे लिए और जिस समय तीसरा फेरा चल रहा था, ठीक उसी समय केसर कालवी घोड़ी हिन् हिना उठी, चारणी पर संकट का समाचार आ गया था ।ब्राह्मण कहता ही रह गया कि अभी तीन ही फेरे हुए है चौथा फेरा अभी बाकी है, पर कर्तव्य मार्ग के उस वीर पाबूजी राठोड़ को तो केवल कर्तव्य की पुकार सुनाई दे रही थी, जिसे सुनकर वह चल दिया ।
सुहागरात की इंद्र धनुषीय शय्या के लोभ को ठोकर मार कर ।
रंगारंग के मादक अवसर पर निमंत्रण भरे इशारों की उपेक्षा कर, कंकंण डोरों को बिना खोले ही चल दिए ।
विश्व-रबारी जाति में सबसे सुंदर संस्कृति एव वेशभूषा
पाबूजी राठौड़ की फड
पाबूजी के यशगान में 'पावड़े' (गीत) गाये जाते हैं व मनौती पूर्ण होने पर फड़ भी बाँची जाती है। भीलवाड़ा और शाहपुरा के चितेरे इन फड़ों का निर्माण करते है।
'पाबूजी की फड़' पूरे राजस्थान में विख्यात है, जिसे भोपे बाँचते हैं। ये भोपे विशेषकर थोरी जाति के होते हैं। फड़ कपड़े पर पाबूजी के जीवन प्रसंगों के चित्रों से युक्त एक पेंटिंग होती है। भोपे पाबूजी के जीवन कथा को इन चित्रों के माध्यम से कहते हैं और गीत भी गाते हैं। इन भोपों के साथ एक स्त्री भी होती है, जो भोपे के गीतोच्चारण के बाद सुर में सुर मिलाकर पाबूजी की जीवन लीलाओं के गीत गाती है। फड़ के सामने ये नृत्य भी करते हैं। ये गीत रावण हत्था पर गाये जाते हैं, जो सारंगी के जैसा वाद्य यन्त्र होता है। 'पाबूजी की फड़' लगभग 30 फीट लम्बी तथा 5 फीट चौड़ी होती है। इस फड़ को एक बाँस में लपेट कर रखा जाता है। पाबूजी के अलावा अन्य लोकप्रिय फड़ 'देवनारायण जी की फड़' होती है।
पाबूजी केवल गोरक्षा कि नहीं अपितु अछूतों धारक भी थे। " नैणसी री ख्यात " तथा पाबूजी री बात से पता चलता है कि इन्होंने म्लेच्छ समझी जाने वाली थोरी जाति के साथ भाइयों को न केवल आश्रय ही दिया बल्कि अपने प्रधान सरदारों में स्थान देकर हमेशा उनको अपने पास रखा इस प्रकार पाबूजी ने समाज में घृणित समझे समझे जाने वाली थोरी जाति को ऊपर उठाने में समाज में उचित स्थान दिलाने का प्रयास किया तथा इन थ्योरी लोगों ने भी मरते दम तक पाबूजी का साथ देकर अपने कर्तव्य का पालन किया
पाबूजी के सरदारों में से चार पांच प्रमुख सरदार थे जिन पर वह अटूट विश्वास रखते थे। यह थे- चंदू जी, सावंत जी, धेमाजी, हरमल जी रायका एवं सरजी सोलंकी।
फड़ में पाबूजी के साथ-साथ इन सरदारों का भी प्रसंग आता है जिन्होंने अनेक बार पाबूजी के साथ शौर्य और पराक्रम का परिचय दिया।
पश्चिमी मारवाड़ में राठौड़ राजपूत पाबूजी का ईस्ट रखते हैं।
पाबूजी के प्रमुख अनुयाई थोरी जाति के लोग पाबूजी री पड़ अर्थात चित्रपट प्रदर्शित करते हुए पाबूजी का पवाड़ा गाकर उस वीर चरित्र का संदेश राजस्थान के घर घर में पहुंचाते हैं।
थोरी जाति के लोग सारंगी द्वारा पाबूजी का यश गाते हैं जिसे राजस्थान की प्रचलित भाषा में " पाबू धणी री वाचना " कहते हैं।
पाबूजी के शौर्य की गाथाएं कवि मेहा चारण कृत "पाबूजी के छंद" बांकीदास कृत "पाबूजी के गीत" रामनाथ कृत "पाबूजी के सोरठे" में मिलती है। इसके अतिरिक्त आशिया मोड़ जी ने भी " पाबू प्रकाश" नामक एक काव्य ग्रंथ की रचना की।
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