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साफा और मारवाड़ के राठौड़ (Saafa aur marwad ke Rathore)

 साफा और मारवाड़ के राठौड़ ●


साफा और मारवाड़ के राठौड़,राव सीहा के पुत्र राव आस्थान ने गोहिलों व डाभियों को हराकर खेड़ जीत लिया और कालान्तर में जब उसके प्रपौत्र राव कनपाल(१३१३-१३२३ई.) के समय महेवे का सारा भू-भाग राठौड़ों के अधिकार में आ गया।

साफा और मारवाड़ के राठौड
तब से राठौड़ों की सीमा जैसलमेर को छूने लगी। जिससे भाटियों-राठौड़ों के बीच समय-समय पर झगड़े होने लगे। तब कनपाल के ज्येष्ठ पुत्र भीम ने भाटियों को हराकर काक नदी से पश्चिम की ओर धकेल दिया। तब से दोनों की सरहद नियत हो गई। जिसका ये सोरठा प्रसिद्ध है-



आधी धरती भीम, आधी लोदरवै धणी।

काक नदी छै सीम, राठौड़ां ने भाटियाँ।।


( आधी धरती भीम की और आधी धरती लौद्रवै के शासकों(भाटियों) की है, काक नदी भाटियों व राठौडों के राज्य की सीमा रेखा है )

चूँकि ये सीमा महेवे के शासकों ने बलपूर्वक तय की थी, अत: भाटियों ने इसे नहीं माना और वे राठौड़ों के विरूद्ध मुल्तान के मुसलमानों व अमरकोट के सोढों को ले आए। 


ई.1323 में इनके मध्य हुए युद्धों मे पहले भीम व बाद में राव कनपाल दोनों ही लड़कर काम आए और कनपाल का दूसरा पुत्र जालणसीं (१३२३-१३२७) अब महेवे का नया शासक बना।


अमरकोट के सोढा भाटियों का साथ देने से अब राठौड़ों के नये दुश्मन बन गये और ये लोग भी यदा-कदा महेवे के गाँवों को लूटने लगे।


इन्हीं दिनों राव जालणसीं ने एक वृक्ष विशेष को 'अमर' घोषित कर दिया और इसके फल-फूल, पत्तियाँ-टहनी इत्यादि काटने पर प्रतिबंध लगा दिया। 'जोधपुर राज्य की ख्यात' के अनुसार ये वृक्ष "चाँदणी" नामक गाँव में था। ये वृक्ष कौनसा था इसके प्रमाण नहीं मिलते।


सोढा राजपूतों को जब इस वृक्ष का पता चला तो उन्होंने राव जालणसीं को चिढाने के लिये इस वृक्ष को मसखरी में काट दिया। जिससे राठौड़ों और सोढों में युद्ध हुआ। युद्ध के दौरान सोढों के सरदार दुर्जनशाल के सिर का साफा राव जालणसीं ने छीन लिया। राव जालणसीं विजयी हुआ।


विजय की याद के उपलक्ष्य में राठौड़ों ने साफा पहनना शुरु कर दिया। कहीं-कहीं ख्यातों में लिखा है राठौड़ों ने तब से विजय स्वरूप साफे को कानों तक पहनना शुरु कर दिया। परंतु ऐतिहासिक तथ्यों के संदर्भ से पता चलता है कि राठौड़ इस घटना से पूर्व लगभग १३२३ ई. से तक तो साफा या पगड़ी नहीं पहनते थे। 

भाग : राव सीहा के पाली के बाँगड़ म्यूजियम स्थित देवली से पता चलता है कि राव सीहा के सिर पर कोई पगड़ी या साफा या मुकुट नहीं है। मूर्ति में उनके घुँघराले बाल दिखाई देते हैं जो बँधे हुए हैं। सीहा के आगे एक सती हाथ जोड़े व पैरों में एक मनुष्य पड़ा है। इस स्मारक के नीचे का अभिलेख १२७३ ई. का है। इससे भी राठौड़ शासकों के तब तक साफा नहीं पहनने के पुष्ट प्रमाण मिलते हैं। 
ये शोध का विषय है क्योंकि राजवी लोग उस समय की परंपरा अनुसार सिर पर कुछ न कुछ तो अवश्य धारण करते होंगे। या हो सकता है राठौड़ शासक कुछ नहीं भी धारण करते हों। राव जालणसीं इत्यादि के समकालीन वीर पाबूजी अपनी एक ओर झुकी हुई पाग के लिये प्रसिद्ध रहे हैं। किंतु पाबूजी के देवलोक का समय क्या रहा, इस पर विद्वानों में मतभेद पाया जाता है।

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