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History of Meera Bai's life मीरा बाई के जीवन का इतिहास

           मीरा बाई के जीवन का इतिहास
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भक्त शिरोमणि मातृश्री मीराबाई, 17वी  शताब्दी की कुछ ऐतिहासिक महत्व एवं मेड़तिया राठौड़ के कुलगुरु की बहियो के आधार पर मेरा का समय विक्रम संवत 1555 से 1604 (सन 1998 से 1504 ईसवी) तक का मालूम होता है मीराबाई मेडता  के राठौड़ शासक राव दूदा के द्वितीय पुत्र रतन सिंह की इकलौती पुत्री थी राव दूदा ने रतन सिंह को अपने राज्य में से 12 गांव निमडी  पालड़ी अकोदिया हलदर नुंद  पमनिया मोटस ढ़ुमानी सुंदरी   कुंडकी बाजोली और नैणीया जागीर में दे रखे थे
 मीराबाई के जन्म के पूर्व उसके माता-पिता बाजोली में रहते थे जहां उनकी एक पुत्र  गोपाल का जन्म हुआ बचपन में उनकी मृत्यु के बाद उनके माता-पिता बाजोली  छोड़कर कुंडकी आकर बस गए और वहां एक छोटा सा गढ़   बनवा लिया



मीराबाई का जन्म और कुर्की  गांव में रतन सिंह की रानी कसबू  कवर जी कलहल हामीरोतरा  से विक्रम संवत 1555 इसी की वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ जब मीरा करीब 3 वर्ष की थी तब उनकी माता का देहांत हो गया जिससे राव  दूदा (दादीजी) ने अपने पास बुला लिया और वहीं उनका पालन-पोषण हुआ
 सावंत 1572 (1515 ई )मे राव  दूदा  का  स्वर्गवास हो गया और उनके बड़े पुत्र वीरमदेव जी मेड़ता के अधिपति हुए गद्दी पर बैठने के दूसरे वर्ष की उन्होंने अपने पिता श्री की लाडली पोती व कनिष्ट भ्राता की पुुत्री
 मीराबाई  का विवाह ""
मीरा का विवाह मेवाड़ के महाराणा सांगा के जेष्ठ पुत्र भोजराज के साथ मेड़ता में संवात 1577 (1516 ईसवी) की अक्षय तृतीया को कर दिया दुर्भाग्य से विवाह के थोड़े समय बाद ही संभवत संवत भोजराज सिंह जी का देहांत हो गया और मीरा विधवा हो गई मीराबाई इस प्रकार अपने पति के सुख से अल्पकाल में ही वंचित हो गई जिससे उनका मन संसार से उचट गया और वह अपने अधिकांश सत्संग तथा भजन कीर्तन में व्यतीत करने लगी कुछ समय पश्चात मीरा वृदावन चली गई और वहां से फिर व्दारका चली गई  मीरा जिस समय व्दारका में थी
 उस समय राणा उदय सिंह मेवाड़ के शासक बन गए मीरा की भक्ति की प्रसिद्धि को सुनकर उन्होंने मीरा को ससम्मान पुुनःमेवाड लाने का निच्श्रय किया एवं पुरोहितो व प्रमुख सामंतगणों को व्दारका भेजा सांमतो ने व्दारका पहुंचकर मीराबाई को महाराणा उदयसिंह की प्रार्थना सुनाकर पुनःमेवाड चलने का निवेदन किया मीरा का मन पूर्णतःव्दारिकाधीश मे रम  कर चुका था
 तब उन्होंने मेवाड़ चलने से मना कर दिया ईस पर पुरोहित एवं सामंतो ने यह कहकर अ्नशन कर दिया कि यदि आप मेवाड नही चलेेगी  तो हम अपने प्राणो का त्याग कर देगे मीरा के सामने धर्म संकट पैदा हो गया पर भगवान व्दारकाधीश के दर्शन करने को कहकर मंदिर मे चली  गई
जहा  वो भगवान से फुट फुटकर रोते हुए निवेदन करने लगी कि हे प्रभु  अब तो इस दासी को अंतिम समय अपने से दुर मत कीजिए और   अपने से  बिछड़ने मत दिजिए मीरा के  आर्तनाद का प्रभाव व्दारिकाधीश पर हुआ  कहते है , मन्दिर मे अचानक अध्दुत चकाचौध करने वाला  दिव्य प्रकाश हुआ ।
भगवान केे  श्री विग्रह से एक दिव्य  ज्योती पुंज निकला जो मीरा केे शरीर तक  पहुुचकर  पुुनः व्दारिकाधीश मे समा गया मीरा सशरीर भगवान के विग्रह मे विलीन हो गई
 जब कफी समय  तक मीरा बाई मन्दिर से   बाहर नही आते देखकर  पुरोहित व सामंंतो मन्दिर मे गए मीरा की चुनरी का कुछ हिस्सा व्दारिकाधीश केे मुर्ती के उपर पड दिखाई दिया वह सब देखकर  अपने राज्य मे लौट आये और  वह का चमत्कार राणा को सुनाया

History of raja jaisigh

engalish in translate

  History of Meera Bai's life
Devotee Shiromani Matrishri Meerabai Mera's time seems to be from Vikram Samvat 1555 to 1604 (1998 to 1504 AD), based on some historical significance of the 17th century and the sisters-in-law of the Vice-Chancellor of Medatia Rathore, the second son of Rao Duda, the Rathore ruler of Meerabai Medta. Rao Duda, the only daughter of Ratan Singh, had given Ratan Singh in 12 villages of his state Nimdi Paldi Akodia Halder Nund Pamaniya Motus Dhumani Sundari Kundki Bajoli and Nainiya Jagir.
 Before the birth of Mirabai his parents lived in Bajoli where He had a son Gopal born.After his death in childhood, his parents left Bajoli and settled in Kundki and built a small stronghold there. Meerabai was born and Ratan Singh's queen Kasabu covered in Kuri village Vikram Samvat from Kalhal Hamirotra In 1555, it was on Vaisakh Shukla Tritiya that when Meera was about 3 years old, her mother died, due to which Rao Duda (Dadiji) called her and she was raised there in Savant 1572 (1515 AD). Died and his elder son Veeramdev ji Merta In the second year of sitting on the throne, he married Meera, the grand-granddaughter of his father Sri, and Meera, the daughter of a junior brother,

married Meera

 to Bhojraj, the eldest son of Maharana Sanga of Mewar, in Akshaya Tritiya of 1577 (1516 AD). A short time after her marriage, probably Samvat Bhojraj Singh ji died and I was widowed, Mirabai was thus deprived of her husband's happiness in a short period of time, which caused her mind to be lost from the world and she spent most of her satsang and bhajan kirtan After spending some time in Meera, went to Vrindavan and from there again went to Wadarka. While Meera was in Wadarka, at that time Rana Udai Singh became the ruler of Mewar, listening to the fame of devotion of Meera, he decided to bring Meera with respectful reverence. And sent priests and chief feudatories to Samadto, Sammato reached Vadarka and told Meera Bai to recite the prayer of Maharana Uday Singh, and requested Meera to walk again in Meera's mind, when he refused to walk in Mewar, the priest and Samanto said this. Answered that if you will not go to Mewar, then you will give up your life. Meera caused a religious crisis, but after going to the temple asking to see Lord Varakadhish, she went to the temple and started crying out to God asking that Now Lord, do not make this maid at the last moment, and do not let yourself get separated. Meera's prayer has had an effect on the worshiper, in the temple, suddenly there was a superlative dazzling celestial light. It turned out to reach Meera's body and reappeared in the magistrate. Meera sashir merged in the Deity of the Lord when Meera Bai did not come out of the temple for a long time, seeing the priest and the Samanto went to the temple, some part of Meera's Chunari on top of the magistrate After seeing all this, he returned to his kingdom and told his miracle to Rana.

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