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Kumbha ke sainik megha ka pratik- कुम्भा के सैनिक मेघा का प्रतीक

कुंभलगढ़ :Kumbha ke sainik megha ka pratik कुम्भा की सैनिक मेघा का प्रतीक सुदृढ और विकट दुर्ग के रूप में कुंभलगढ़ की अपनी निराली शान और पहचान है। यह किला न केवल मेवाड़ का अपितु समूचे राजपूताना के सबसे दुभेध्य दुर्गों की कोटि में रखा जाता है।

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वीर विनोद अनुसार राणा कुम्भा ने वि. सं. 1505 में इसकी नींव रखी । उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार मौर्य शासक सम्प्रति ( सम्राट अशोक का द्वितीय पुत्र ) द्वारा निर्मित प्राचीन दुर्ग के भग्नावेश पर किले का निर्माण कार्य कुम्भा के प्रमुख शिल्पी व वास्तुशास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान मंडन की देखरेख में 10 वर्ष तक चला और विस. 1515 में इसका निर्माण संपन्न हुआ। इस अवसर की स्मृति में कुम्भा ने विशेष सिक्के ढलवाये जिन पर " कुंभलगढ़ दुर्ग " का नाम अंकित किया गया ।

जमीन रो कुण धणी

पर्वत मालाओं की गोद में बना कुंभलगढ़ सही अर्थों में एक प्राकृतिक दुर्ग है । चारों तरफ से हरियाली और पर्वत शिखरों से घिरा होने के कारण यह बहुत ऊंचा होते हुए भी दूर से दिखलाई नहीं पड़ता ।


इस विशेषता के कारण इसका दोहरा महत्व था -

जहां एक ओर यह दुर्ग सैनिक अभियानों के संचालन की दृष्टि से उपयोगी था , वहीं विपत्ति के समय शरणस्थल के रूप में भी उपयुक्त था।

 

कुंभलगढ़ की स्थापत्य में इसकी यह विशेषता किले के भीतर बने लघु या आंतरिक दुर्ग कटारगढ़ के रूप में प्रकट हुई।


कई मील लंबी विशाल और उन्नत प्राचीर जिस पर तीन चार घुड़सवार एक साथ चल सकें, प्राचीर के मध्य आनुपातिक दूरी पर बनी विशाल बुर्जें , उंचें और अवरोधक प्रवेश द्वार कुंभलगढ़ के किले को दुरभेद्य स्वरूप प्रदान करते है ।


इसी कारण कर्नल टॉड ने इस दुर्ग की तुलना " एस्ट्रूकन " से की है।


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रायबहादुर हरबिलास शारदा ने इस किले को " कुम्भा की सैनिक मेघा का प्रतीक बताया है। वे लिखते है - 

कुम्भ की सेना और रचनात्मक प्रतिभा का सबसे ऊंचा स्मारक, हालांकि" KUMBHAKGARH "या" KUMBHALMER "का अद्भुत किला है जो सामरिक महत्व या ऐतिहासिक क्षेत्र में कोई भी नहीं है।"

इस दुर्ग की ऊंचाई के बारे में अबुल फजल लिखता है -

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" यह दुर्ग इतनी बुलंदी पर बना हुआ है कि अगर कोई पगड़ीधारी पुरुष इसे नीचे से ऊपर की और देखे तो उसकी सिर की पगड़ी नीचे गिर जाती है।"

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