जमीन रो कूण धणी
Jameen ro koon dhanee-पहले स्कुल के स्लेबस में एक कविता हुआ करती थी "जमीन रो कुण धणी ?, ओ धणी को वो धणी " चुरु के किले का इतिहास
कवि पूर्वाग्रसित था। जमीन के कल तक के धणियों से जिन्होंने ये धरती अपने बहुबल से अर्जित की थी, जिनका धर्म केवल जमीन का उपभोग नही था बल्कि कर्तव्य पालन की महती भावना के तहत बलिदान की की पराकाष्ठा जो की आत्मोत्सर्ग ही था, के लिए सदेव तैयार रहते थे, को गलत ढंग से दिखाने के लिए एक सोची समझी रणनीति के तहत लिखा था। उनकी ओछी हरकत जग जाहिर है , मात्र कविताओं में ही नहीं वरन फिल्मों आदि में भी जमीन के धणियों अर्थात जागीरदार, ठाकुरों को गलत दर्शाया गया और अब भी दर्शाया जाता है ।
मैंने यह कविता जब मेरी पिताजी को दिखाई तो उन्होंने हंस कर जो प्रत्युत्तर दिया वो कुछ इस प्रकार था -
काळ चक्र नै देख घुमतो , बोल उठ्यो कोई कवि कणि।
इण धरती रो कुण धणी ,ओ धणी को वो धणी ।।
काळ देव हंस कर यो बोल्या ,धरती रो ना कोई धणी ।
धरती है माता सारा की, काळ देव म बीज बणी।
नित उपजाऊ नित खपाऊ .आतो रवे बणी ठनी।।
कतरा बेटा इणरी खातर, खून देवे और मौत वरे ।
बिजोड़ा अन धन उपजाव ,खून पसीनो एक करे ।।
धरती पर रक्षक न होता ,चोर लुटेरा कियां डरे ।
अन्न - धन इज्जत आब मिनख री, लेता बी नाहक डरे ।
सोच समझ कर बोलो ,धरती रा है कोण धणी ?
आ धणी क बै धणी !!
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