राव वीरमदेव सोनगरा 1368
Rav veeramdev sonigara1368 राव वीरमदेव सोनगरा : ( साका जालौर दुर्ग - संवत् 1368 )राव वीरमदेव सोनगरा ( चौहान ) एक ऐसे बहादुर वीर थे जिनकी वीरता से मुग्ध होकर दिल्ली सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने अपनी पुत्री के विवाह का प्रस्ताव वीरमदेव से किया था पर वीर क्षत्रिय ने यह कहकर दिल्ली सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया कि -
" मामो लाजै भाटियां, कुळ लाजै चहुआण ।
जो हूँ परणूं तूरकड़ी तो पच्छिम् उगै भाण ।। "
राव वीरमदेव जालौर के इतिहास प्रसिद्ध शासक कान्हडदेव जी का पुत्र था।अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली सम्राट बनते ही दूसरा सिकन्दर बनना चाहता था वह सम्पूर्ण भारत में अपनी विजय पताका फहराना चाहता था। अलाउद्दीन ने संवत् 1360 में ही रत्नसिंह जी से चित्तौड ! सम्वत् 1358 में हमीर देव चौहान से रणथम्भौर ! और सम्वत् 1364 में सातलदेव चौहान से सिवाना जीत लिया था। इस तरह अलाउद्दीन ने कुछ ही वर्षों में अनेक साम्राज्यों को जीतकर उन पर अपना अधिकार कर लिया था। इनको जीतने के पश्चात् सम्वत् 1362 में उसने जालौर पर आक्रमण किया इस समय जालौर में महान वीर कान्हडदेव जी का शासन था। अलाउद्दीन ने गुजरात को जीतने व सोमनाथ के मन्दिर को विध्वंस करने के लिए जाने के लिए जालौर साम्राज्य की सीमा से फौज के लिए रास्ता माँगा पर कान्हड देव ने इसके लिए मना कर दिया इससे अल्लाउद्दीन नाराज हो गया ।
अल्लाउद्दीन ने फिर अपनी सेना मेवाड के रास्ते गुजरात भेजी। गुजरात अभियान में सफलता प्राप्त कर अल्लाउद्दीन की सेना वापिस लौट रही थी तब उसने कान्हडदेव को दण्डित करना चाहा। अल्लाउद्दीन की सेना ने सराना गांव में अपना डेरा डाला उस समय सोमनाथ का शिवलिंग भी उसकी सेना के पास था।कान्हडदेव को इसका पता चला तो उसने शाही सेना का मुकाबला कर शिवलिंग को छुडाना चाहा। कान्हडदेव ने जयन्त देवडा के सेनापतित्व में अनेक योद्धाओं के साथ जालौर की सेना तैयारी की और शाही सेना पर आक्रमण कर पवित्र शिवलिंग को प्राप्त कर लिया।
वीर दुर्गादास राठौड़ का बलिदान
शाही फौज के सरदार भाग गया - कान्हडदेव ने फिर इस शिवलिंग की इसी सराना गांव में प्राण प्रतिष्ठा कराई। इस युद्ध में कान्हडदेव के भी अनेक वीर वीरगति को प्राप्त हुए । जिनमें प्रमुख भील सरदार खानडा एवं बेगडा थे व पाटन के दो राजकुमार हमीर और अर्जुन थे। वीरमदेव ने इस युद्ध में अद्भुत वीरता दिखाई और इसी वीरता की प्रशंसा सुनकर अल्लाऊद्दीन खिलजी ने.वीरमदेव की प्रशसा सुनकर अल्लाऊहीन खिलजी ने वीरमदेव को दिल्ली बुलाया था जहाँ उसकी पुत्री ने वीरमदेव से विवाह करने का प्रस्ताव रखा था। वीरमदेव के फिरोजा से विवाह के प्रस्ताव को ठुकराने सेअल्लाऊद्दीन खिलजी ने जालौर को नष्ट करने का निश्चय कर लिया। उसने मलिक नाहरखान के नेतृत्व में एक बडी फौज जालौर भेजी। नाहरखान ने सबसे पहले सिवाणा पर आक्रमण किया ताकि राजपूत संगठित न हो सकें। कान्हडदेव ने सिवाना के सातलदेव की सहायता की और शाही सेना को परास्त किया- इसके पश्चात् जालौर पर फिर शाही सेना की टुकडियाँ भेजी पर शाही सेना हमेशा विफल ही रही यह क्रम लगातार 5 वर्ष तर चलता रहा फिर संवत 1367 में अलाउद्दीन स्वयं एक बडी सेना लेकर जालौर पर चढ़ आया।
सबसे पहले उसने सिवाना के किले को घेरा और लम्बे समय तक घेरा डाले रखा आखिर एक विश्वासघाती ने किले की गुप्त सूचनाएँ दी और जल भण्डार में गो रक्त डलवा दिया किले में पीने का पानी नहीं रहा वीरों ने तब साका करने का निर्णय लिया और क्षत्राणियों ने जौहर का।
गढ़ के दरवाजे खोल दिए गये राजपूतों ने शाही सेना पर भीषण आक्रमण किया। तीन पहर युद्ध के बाद सातलदेव वीरगति को प्राप्त हुए। सिवाणा दुर्ग पर अल्लाऊद्दीन का अधिकार हो गया। इसके पश्चात् उसने बाडमेर, साँचौर,भीनमाल पर अधिकार किया और जालौर की ओर प्रस्थान किया । सभी खाँपों के राजपूत अपने सैनिकों व घोडों से सुसज्जित होकर जालौर पहुँचने लगे। जालौर की पूरी प्रजा अपने तन मन धन से सहयोग में लग गये। जयन्त देवडा व महीप देवडा के नेतृत्व में जालौर की सेना ने शाही फौज पर भीषण आक्रमण किया, शाही सेना के पैर उखड गये और वे भाग छूटे। उस दिन अमावस्या थी राजपूत सैनिकों ने अपने शस्त्र रखकर एक तालाब में स्नान करना आरम्भ कर दिया एक शाही सेनानायक ने जब देखा कि राजपूत शस्त्र रख कर स्नान कर रहे है तो उसने अपनी एक टुकडी के साथ निहत्थे राजपूतों पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण में चार हजार राजपूत अपने दोनों सेनापतियों सहित वीरगति को प्राप्त हुए। इस जघन्य काण्ड की सूचना जालौर तक पहुँचाने के लिए एक भी व्यक्ति जीवित नहीं बचा था। कमालुद्दीन के नेतृत्व में शाही सेना ने फिर जालौर के किले पर आक्रमण किया। सात दिन तक शाही सेना ने दुर्ग को घेरे रखा पर वीरमदेवजी और मालदेवजी की रण कौशलता के कारण शाही सेना के सब प्रयास विफल रहे। फिर शाही सेना के खेमे में आग लग गई और सेना हताश होकर दिल्ली लौटने लगी।वीरमदेवजी,मालदेवजी भीषण धावा कर शाही सेनानायक शमशेरखान को उसके हरम सहित पकड लिया। जब अलाऊद्दीन शेष भाग - द्वितीय : जब अलाऊद्दीन खिलजी को दिल्ली में यह समाचार मिला तो वह तिलमिला उठा और हर कीमत पर जालौर पर कब्जा करना चाहा। उसने अपने योग्य सेनापति मलिक कमालुद्दीन के नेतृत्व में शस्वास्त्रों से सुसजित एक बहुत बडी सेना जालौर विजय हेतु भेजी - कान्हडदेवजी ने भाई मालदेवजी और राजकुमार वीरमदेवजी के नेतृत्व में दो सेनायें तैयार की। वीरमदेवजी की
सेना ने भाद्राजून में मोर्चा लिया- युद्ध में दोनों तरफ की सेनाओं का भारी नुकसान हुआ कान्हडदेवजी ने मालदेवजी और वीरमदेवजी को मन्त्रणा हेतु जालौर बुलाया- मालदेवजी तो पुनः युद्ध के मोर्चे पर आ गये और वीरमदेवजी किले की रक्षार्थ जालौर ही ठहर गये। शाही सेना ने किले का घेरा डाल दिया और खाद्य सामग्री व शस्त्रों का आवागमन रोक दियादुर्ग के भीतर स्थिति दिनों दिन खराब हो रही थी। जल भण्डार भी समाप्त हो रहा था पर क्षेत्र के सभी लोगों से पूरा सहयोग मिल रहा था कुछ स्थिति में सुधार हुआ तब कान्हडदेव के एक सरदार विका ने दुर्ग का भेद शाही सेना को दे दिया। शाही सेना को किले में प्रवेश का मार्ग मिल गया। शाही सेना ने पूरे जोर से आक्रमण किया राजपूतों ने डटकर मुकाबला किया पर कान्हडदेवजी के मुख्यमुख्य सरदार युद्ध में काम आये- कान्हडदेवजी को दुर्ग के बचने की उम्मीद नहीं रही । विक्रम संवत 1368 की बैशाख सुदी पंचमी को कान्हडदेवजी ने वीरमदेवजी को गही पर बैठाया । कान्हडदेवजी ने अन्तिम युद्ध की तैयारी करली उनकी चारों रानियों ने अन्य क्षत्राणियों के साथ जौहर किया। जालौर में उस दिन सभी समाज की स्त्रियों ने 1584 स्थानों पर जौहर किया। कान्हडदेवजी व उनके बचे हुए सरदारों ने स्नान किया मस्तक पर चन्दन का तिलक लगा गले में तुलसी की माला धारण कर अन्तिम युद्ध के लिए निकल पडे-- कान्हडदेवजी दोनों हाथों से तलवार चला रहे थे,शाही सेना की तबाही करते हुए और अपनी मातृभूमि, धर्म और संस्कृति की रक्षा करते हुए वीर कान्हडदेवजी बैशाख सुदी पंचमी संवत 1368 को वीरगति को प्राप्त हुए। कान्हडदेवजी के वीरगति प्राप्त करने पर वीरमदेवजी ने युद्ध की बागडोर संभाली। उन्होंनें भी अपने सात हजार घुडसवार साथियों को अन्तिम युद्ध के लिए आदेश दिए और मुकाबले को निकल पडे। साढ़े तीन दिन युद्ध हुआ और वीरगति को प्राप्त हुए - रानियों ने जौहर कर लिया। वीरमदेवजी ने जीते जी जालौर पर कब्जा नहीं होने दिया।अलाऊद्दीन की बेटी फिरोजा की धाय सनावर जो इस युद्ध में साथ थी, वीरमदेव का मस्तक सुगन्धित पदार्थों में रख कर दिल्ली ले गई।वीरमदेव का मस्तक जब स्वर्ण थाल में रखकर.वीरमदेव का मस्तक जब स्वर्ण थाल में रखकर फिरोजा के सम्मुख लाया गया तो सिर उल्टा घूम गया तब फिरोजा ने अपने पूर्वजन्म की कथा
सुनाई -
"तज तुरकाणी चाल हिंदुआणी हुई हमें ।
भो भोरा भरतार, शीश ने घूणा सोनोगरा ।।"
फिरोजा ने शोक प्रकट कर उनका अंतिम संस्कार किया और स्वयं अपनी माता की आज्ञा प्राप्त कर यमुना नदी के जल में प्रविष्ट हो कर अपने प्राण त्यागे। इतिश्री
जय वीर वीरमदेव सोनगरा !
जय जौहर धारिणी क्षत्राणियां !
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