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History of jiya rani-जिया रानी का इतिहास

History of jiya rani-जिया रानी का इतिहास 

History of jiya rani-जिया रानी का इतिहास (मौला देवी पुंडीर) की गौरवगाथा इतिहास में कुछ ऐसे अनछुए व्यक्तित्व होते हैं जिनके ज्यादा लोग नहीं जानते मगर एक क्षेत्र विशेष में उनकी बड़ी मान्यता होती है और वे लोकदेवता के रूप में पूजे जाते हैं,आज हम आपको एक ऐसी ही वीरांगना से परिचित कराएँगे जिनकी कुलदेवी के रूप में आज तक उतराखंड में पूजा की जाती है.

History of Raja jai singh

उस वीरांगना का नाम है राजमाता जिया रानी(मौला देवी पुंडीर) जिन्हें कुमायूं की रानी लक्ष्मीबाई कहा जाता है -

जिया रानी(मौला देवी पुंडीर) 


हरिद्वार(मायापुर) के शासक चन्द्र पुंडीर सम्राट पृथ्वीराज चौहान के बड़े सामन्त थे,तुर्को से संघर्ष में चन्द्र पुंडीर,उनके वीर पुत्र धीरसेन पुंडीर और पौत्र पावस पुंडीर ने बलिदान दिया।

ईस्वी 1192 में तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की हार के बाद देश में तुर्कों का शासन स्थापित हो गया था,मगर उसके बाद भी किसी तरह दो शताब्दी तक हरिद्वार में पुंडीर राज्य बना रहा,

Pabuji Rathore 

ईस्वी 1380 के आसपास हरिद्वार पर अमरदेव पुंडीर का शासन था, जिया रानी का बचपन का नाम मौला देवी था,वो हरिद्वार(मायापुर) के राजा अमरदेव पुंडीर की पुत्री थी,


इस क्षेत्र में तुर्कों के हमले लगातार जारी रहे और न सिर्फ हरिद्वार बल्कि गढ़वाल और कुमायूं में भी तुर्कों के हमले होने लगे,ऐसे ही एक हमले में कुमायूं (पिथौरागढ़) के कत्युरी राजा प्रीतम देव ने हरिद्वार के राजा अमरदेव पुंडीर की सहायता के लिए अपने भतीजे ब्रह्मदेव को सेना के साथ सहायता के लिए भेजा,


जिसके बाद राजा अमरदेव पुंडीर ने अपनी पुत्री मौला देवी का विवाह कुमायूं के कत्युरी राजवंश के राजा प्रीतमदेव उर्फ़ पृथ्वीपाल से कर दिया,

मौला देवी प्रीतमपाल की दूसरी रानी थी,उनके धामदेव,दुला,ब्रह्मदेव पुत्र हुए जिनमे ब्रह्मदेव को कुछ लोग प्रीतम देव की पहली पत्नी से मानते हैं,मौला देवी को राजमाता का दर्जा मिला और उस क्षेत्र में माता को जिया कहा जाता था इस लिए उनका नाम जिया रानी पड़ गया,

कुछ समय बाद जिया रानी की प्रीतम देव की पहली पत्नी से अनबन हो गयी और वो अपने पुत्र के साथ गोलाघाट की जागीर में चली गयी जहां उन्होंने एक खूबसूरत रानी बाग़ बनवाया,यहाँ जिया रानी 12 साल तक रही.

तैमुर का हमला : 

ईस्वी 1398 में मध्य एशिया के हमलावर तैमुर ने भारत पर हमला किया और दिल्ली मेरठ को रौंदता हुआ वो हरिद्वार पहुंचा जहाँ उस समय वत्सराजदेव पुंडीर(vatsraj deo pundir) शासन कर रहे थे,उन्होंने वीरता से तैमुर का सामना किया ,

मगर शत्रु सेना की विशाल संख्या के आगे उन्हें हार का सामना करना पड़ा।

पुरे हरिद्वार में भयानक नरसंहार हुआ,जबरन धर्मपरिवर्तन हुआ और राजपरिवार को भी उतराखण्ड के नकौट क्षेत्र में शरण लेनी पड़ी वहां उनके वंशज आज भी रहते हैं और मखलोगा पुंडीर के नाम से जाने जाते हैं।

तैमूर ने एक टुकड़ी आगे पहाड़ी राज्यों पर भी हमला करने भेजी,जब ये सूचना जिया रानी को मिली तो उन्होंने इसका सामना करने के लिए कुमायूं के राजपूतो की एक सेना का गठन किया,तैमूर की सेना और जिया रानी के बीच रानीबाग़ क्षेत्र में युद्ध हुआ जिसमे मुस्लिम सेना की हार हुई।

इस विजय के बाद जिया रानी के सैनिक कुछ निश्चिन्त हो गये,पर वहां दूसरी अतिरिक्त मुस्लिम सेना आ पहुंची जिससे जिया रानी की सेना की हार हुई,और सतीत्व की रक्षा के लिए एक गुफा में जाकर छिप गयी।

जब प्रीतम देव को इस हमले की सूचना मिली तो वो स्वयं सेना लेकर आये और मुस्लिम हमलावरों को मार भगाया,इसके बाद में वो जिया रानी को पिथौरागढ़ ले आये,प्रीतमदेव की मृत्यु के बाद मौला देवी ने बेटे धामदेव के संरक्षक के रूप में शासन भी किया था। वो स्वयं शासन के निर्णय लेती थी। माना जाता है कि राजमाता होने के चलते उसे जियारानी भी कहा जाता है। 

मां के लिए जिया शब्द का प्रयोग किया जाता था। रानीबाग में जियारानी की गुफा नाम से आज भी प्रचलित है। कत्यूरी वंशज प्रतिवर्ष उनकी स्मृति में यहां पहुंचते हैं।

यहाँ जिया रानी की गुफा के बारे में एक और किवदंती प्रचलित है

"कहते हैं कत्यूरी राजा पृथवीपाल उर्फ़ प्रीतम देव की पत्नी रानी जिया यहाँ चित्रेश्वर महादेव के दर्शन करने आई थी। वह बहुत सुन्दर थी। जैसे ही रानी नहाने के लिए गौला नदी में पहुँची,

वैसे ही मुस्लिम सेना ने घेरा डाल दिया। रानी जिया शिव भक्त और सती महिला थी।उसने अपने ईष्ट का स्मरण किया और गौला नदी के पत्थरों में ही समा गई। 

मुस्लिम सेना ने उन्हें बहुत ढूँढ़ा परन्तु वे कहीं नहीं मिली।

कहते हैं - उन्होंने अपने आपको अपने घाघरे में छिपा लिया था। वे उस घाघरे के आकार में ही शिला बन गई थीं। 

गौला नदी के किनारे आज भी एक ऐसी शिला है, जिसका आकार कुमाऊँनी घाघरे के समान हैं। उस शिला पर रंग-विरंगे पत्थर ऐसे लगते हैं - मानो किसी ने रंगीन घाघरा बिछा दिया हो। 

वह रंगीन शिला जिया रानी के स्मृति चिन्ह माना जाता है। रानी जिया को यह स्थान बहुत प्यारा था। यहीं उसने अपना बाग लगाया था और यहीं उसने अपने जीवन की आखिरी सांस भी ली थी।

वह सदा के लिए चली गई परन्तु उसने अपने सतीत्व की रक्षा की। तब से उस रानी की याद में यह स्थान रानीबाग के नाम से विख्यात है।कुमाऊं के प्रवेश द्वार काठगोदाम स्थित रानीबाग में जियारानी की गुफा का ऐतिहासिक महत्व है

कुमायूं के राजपूत आज भी वीरांगना जिया रानी पर बहुत गर्व करते हैं,

उनकी याद में दूर-दूर बसे उनके वंशज (कत्यूरी) प्रतिवर्ष यहां आते हैं। पूजा-अर्चना करते हैं। कड़ाके की ठंड में भी पूरी रात भक्तिमय रहता है।

महान वीरांगना सतीत्व की प्रतीक पुंडीर वंश की बेटी और कत्युरी वंश की राजमाता जिया रानी को शत शत नमन 🙏 

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