तोपखाना (enginery)
मध्यकाल से राजपूताना और भारतीय सरजमीं पर तोप का युद्ध स्तर पर प्रथम बार प्रयोग ख़ानवा युद्ध में माना जाता है। संभवत: यही से युद्ध क्षेत्र और दुर्ग सुरक्षा में इनका उपयोग बहुतायत से प्रारम्भ हुआ ।
तोपों के हथियार खाने और उन्हें दागने वाले कारीगर ( सैनिक ) का मिश्रित रूप तोप खाना (eginery) कहलाता है।
राजपूताना में लगभग सभी रियासतों का अपना-अपना तोपखाना था। तोपों के आकार और प्रयोग के आधार पर इन्हे दो भागों में विभाजित किया गया है -
१. जिन्सी तोपखाना २. दस्ती तोपखाना
१. जिन्सी :- इस श्रेणी में भारी तोपें होती थी जिन्हें रामचंगी कहते थे जो 10 से 12 सैर तक का गोला फेंक सकते थे और जिन्हें कई बेल की सहायता से खींचा जाता था।
२. दस्ती :- हल्के वजन की होती थी जो विभिन्न नामों से जानी जाती थी इनमें मुख्य थी-
•नरनाल ', - लोगो की पीठ पर ले जाया जाने वाला हल्का तोपखाना।
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•शुतरनाल' - ऊंठ पर ले जाई जाने वाली छोटी तोपें (cannon) , जो ऊंट को बिठाकर चलाई जाती थी।
•गजनाल / हथनाल - हाथी की पीठ पर लाद कर ले जाने वाला तोपखाना था।
•रहकला' - कागजातों में ' रहकला ' का भी उल्लेख मिलता है , जो पहिए वाली गाड़ी पर लगी हल्की तोपें होती थी जिन्हें बैल खींचते थे।
तोपखाने (enginery) के अधिकारी :
तोपखाने के अधिकारियों में "बक्शी तोपखाना" "दरोगा तोपखाना" और "मुशरिफ तोपखाना" का उल्लेख मिलता है।
तोपची : - तोप से गोला/ बारूद दागने वाले व्यक्ति को तोपची कहा जाता था । जिसके लिए कहीं कहीं गोलन्दाज शब्द का भी उल्लेख मिलता है। तोप खाना सैन्य विभाग का ही हिस्सा था जिसे सिलेहखाना कहा जाता था। सिलेहखाना शब्द हथियार डिपो के लिए भी प्रयुक्त हुआ है। इन सैन्य अधिकारियों को घर गुजारी के लिए तनख्वाह स्वरूप जागीर व नगदी दी जाती थी
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