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Shreeram charitamanas 'के दोहे

 श्रीरामचरितमानस के दोहे हिंदी में Shreeram charitamanas hindi main


(अरण्य काण्ड, नवधा भक्ति new ram दोहे हिंदी में)

(आओ मानस के इस अंश को कंठस्थ करें )

ताहि देइ गति ram उदारा सबरी के आश्रम पगु धारा ॥ सबरी देख राम गृह आए। मुनि के बचन समुझि जियँ भाए। शबरी जी ने श्रीरामचन्द्र जी को घर में आये देखा, तब मुनि मतंग जी के वचनों को याद करके उनका मन प्रसन्न हो गया।ram for sale नहीं करनी चाहिए तस्वीरें को ram 2021 के दोहे हैं


सरसिज लोचन बाहु बिसाला जटा मुकुट सिर उर बनमाला।

स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई | कमलसदृश नेत्र और विशाल भुजा वाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किये हुए सुन्दर साँवले और गोरे दोनों भाइयों के चरणों में शबरी जी लिपट पड़ीं।


प्रेम मगन मुख वचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा॥ सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुंदर आसन बैठारे ॥

वे प्रेम में मग्न हो गयीं, मुख से वचन नहीं निकलता। बार-बार चरणकमल में सिर नवा रही हैं। फिर उन्होंने जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाइयों के चरण धोये और फिर उन्हें सुन्दर आसनों पर बैठाया।

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कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।

प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि ।।

 उन्होंने अत्यन्त रसीले और स्वादिष्ट कन्द, मूल और फल लाकर श्रीराम जी को प्रभु ने बार-बार प्रशंसा करके उन्हें प्रेमसहित खाया।


पानि जोरि आगे भइ ठाढ़ी। प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी॥

केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी।

फिर वे हाथ जोड़कर आगे खड़ी हो गयीं। प्रभु को देखकर उनका प्रेम अत्यन्त बढ़ गया। उन्होंने कहा मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करू? मैं छोटी जाति की और अत्यन्त मूढ़बुद्धि हूँ।


अधम ते अधम अधम अति नारी तिन्ह मह मैं मतिमंद अधारी।

कह रघुपति सुनु भामिनि बाता मानउँ एक भगति कर नाता॥ जो अधम से भी अधम हैं, स्त्रियाँ उनमें भी अत्यन्त अधम हैं; और उनमें भी, हे पापनाशन! मैं मन्दबुद्धि हूँ। श्री रघुनाथ जी ने कहा- हे भामिनि! मेरी बात सुन मैं तो केवल एक भक्ति का ही सम्बन्ध मानता हूँ ।

जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई  

भगति हीन नर सोहड़ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा ||


जाति, पाँति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता- इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है, जैसे जलहीन बादल शोभाहीन दिखायी पड़ते हैं।


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नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं॥

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥

 मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर पहली भक्ति है सन्तों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग मेंप्रेम। 

गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।

चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान।।

तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरणकमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुणसमूहों का गान करे।


मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा।

छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन घरमा॥ 

मेरे राम मन्त्र का जाप और मुझ में दृढ़ विश्वास- यह पांचवी भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इन्द्रियों का निग्रह, शील अच्छा स्वभाव या चरित्र, बहुत कार्यों से वैराग्य और निरन्तर संतपुरुषों के धर्म आचरण में लगे रहना।।


सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा।

आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहूँ नहिं देखड़ परदोषा॥

 सातवीं भक्ति है जगत् भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाय उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराये दोषों को न देखना।।

नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥



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नव महुँ एकउ जिन्ह के होई। नारि पुरुष सचराचर कोई ॥ नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन, कोई भी हो।


सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें ॥ जोगि बूंद दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥ हे भामिनि! मुझे वही अत्यन्त प्रिय है। फिर तुझमें तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिये सुलभ हो गयी है।


मम दरसन फल परम अनूपा । जीव पाव निज सहज सरूपा ॥ जनकसुता कइ सुधि भामिनी जानहि कहु करिबरगामिनी ॥


मेरे दर्शन का परम अनुपम फल यह है कि जीवन अपने सहज स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। हे भामिनि! अब यदि तू गजगामिनी जानकी की कुछ खबर जानती हो, तो बता ।


पंपा सरहि जाहु रघुराई। तहँ होइहि सुग्रीव मिताई ॥ सो सब कहिहि देव रघुबीरा। जानतहूँ पूछहु मतिधीरा ॥


शबरी ने कहा हे रघुनाथ जी! आप पंपा नामक सरोवर को जाइये। वहाँ आपकी सुग्रीव से मित्रता होगी। हे देव! हे रघुवीर! वह सब हाल बतावेगा। हे धीर बुद्धि! आप सब जानते हुए भी मुझसे पूछते हैं।


बार बार प्रभु पद सिरु नाई। प्रेम सहित सब कथा सुनाई।

बार-बार प्रभु के चरणों में सिर नवाकर, प्रेम सहित उसने सब कथा सुनायी।। कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदयँ पद पंकज धरे। तजि जोग पावक देह हरि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे ॥ नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू । बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू ॥


सब कथा कहकर भगवान् के मुख के दर्शन कर, हृदय में उनके चरणकमलों को धारण कर लिया और योगाग्नि से देह को त्यागकर वह उस दुर्लभ हरिपद में लीन हो गयी, जहाँ से लौटना नहीं होता। तुलसीदास जी कहते हैं कि अनेकों प्रकार के कर्म, अधर्म और बहुत से मत, ये सब शोकप्रद हैं; हे मनुष्यो! इनका त्याग कर दो और विश्वास करके श्रीरामजी के चरणों में प्रेम करो।


जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि। महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि॥

जो नीच जाति की और पापों की जन्मभूमि थी, ऐसी स्त्री को भी जिन्होंने मुक्त कर दिया, अरे महादुर्बुद्धि मन! तू ऐसे प्रभु को भूलकर सुख चाहता है?


प्रश्न- श्रीराम के अनुसार पहली भक्ति कौन?

उत्तर संतों का सत्संग।


प्रश्न- उत्तर चौथी भक्ति कौन सी है?

उत्तर - कपट छोड़कर मेरे गुणों का गान करना।


प्रश्न - राम मंत्र का जप और दृढ़ विश्वास कौन सी नम्बर की भक्ति है?


उत्तर- पांचवीं भक्ति।

 प्रश्न• प्रभु श्रीराम ने आठवीं भक्ति में क्या बताया?


उत्तर- जो कुछ मिल जाये उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराये दोषों को नहीं देखना ।


प्रश्न- नौवीं भक्ति किस प्रकार की है? 

उत्तर- अपने हृदय में मेरे भरोसे के साथ सभी के प्रति सरल और कपट रहित बर्ताव करना।

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