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उड़ना राजकुमार पृथ्वीराज का सम्पूर्ण इतिहास जाने

उड़ना राजकुमार पृथ्वीराज का सम्पूर्ण इतिहास जाने उड़ना राजकुमार पृथ्वीराज का" सम्पूर्ण इतिहास जाने- कुंवर पृथ्वी सिंह जिन्हें उड़ना पृथ्वीराज के नाम से भी इतिहास में जाना जाता है, मेवाड़ के महाराणा रायमल के ज्येष्ठ पुत्र थे व इतिहास प्रसिद्ध महाराणा सांगा के बड़े भाई। सांगा व कुंवर पृथ्वीराज दोनों झाला राजवंश में जन्मी राणा रायमल की रानी रतनकंवर के गर्भ से जन्में थे। कुंवर पृथ्वीराज अपने अदम्य साहस, अप्रत्याशित वीरता, दृढ निश्चय, युद्धार्थ तीव्र प्रतिक्रिया व अपने अदम्य शौर्य के लिए दूर दूर तक जाने जाते थे| इतिहासकारों के अनुसार अपने इन गुणों से “पृथ्वीराज को लोग देवता समझते थे|” पृथ्वीराज एक ऐसे राजकुमार थे जिन्होंने अपने स्वयं के बलबूते सैन्य दल व उसके खर्च के लिए स्वतंत्र रूप से आर्थिक व्यवस्था कर मेवाड़ के उन कई उदण्ड विरोधियों को दंड दिया जो मेवाड़ राज्य की परवाह नहीं करते थे| इतिहासकारों के अनुसार यदि पृथ्वीराज की जहर देकर हत्या नहीं की गई होती और वे मेवाड़ की गद्दी पर बैठते तो देश का इतिहास कुछ और ही होता| यदि राणा रायमल का यह ज्येष्ठ पुत्र पृथ्वीराज जीवित होता और सांगा के स्थान

Khanda vivah parmpara kiya hai jane ^ "खांडा विवाह परम्परा " क्या है जाने

  Khanda vivah parmpara खांडा विवाह परपरा | राजपूत योद्धाओं को अक्सर अनवरत चलने वाले युद्धों के कारण अपनी शादी के लिए जाने तक का समय नहीं मिल पाता था ऐसे कई अवसर आते थे कि योद्धा की शादी तय हो जाती थी और ठीक शादी से पहले उसे किसी युद्ध में चले जाना पड़ता था ऐसी परिस्थितियों में उस काल में राजपूत समुदाय में खांडा विवाह परम्परा की शुरुआत हुई| राजस्थान के राजपूत शासन काल में राजपूत हमेशा युद्धरत रहते थे कभी बाहरी आक्रमण तो कभी अपना अपना राज्य बढ़ाने के लिए राजाओं की आपसी लड़ाईयां|इन लड़ाइयों के चलते राजपूत योद्धाओं को कभी कभी अपनी शादी तक के लिए समय तक नहीं मिल पाता था|कई बार ऐसे भी अवसर आते थे कि शादी की रस्म को बीच में ही छोड़कर राजपूत योद्धाओं को युद्ध में जाना पड़ता था| Mewad adhipati rajsinghji ka itihas . . राजस्थान के प्रसिद्ध लोक देवता पाबूजी राठौड अपनी शादी में फेरों की रस्म पूरी ही नहीं कर पाए थे कि एक वृद्धा के पशुधन को लुटेरों से बचाने के लिए फेरों की रस्म बीच में ही छोड़ उन्हें रण में जाना पड़ा और वे उस वृद्धा के पशुधन की रक्षा करते हुए युद्धभूमि में शहीद हो गए| इसी तरह मेवाड़ के सल

Mewad adhipati maharaja rajsingh pratham- मेवाड़ अधिपति महाराणा राज सिंह जी प्रथम

Mewad adhipati maharaja rajsingh pratham मेवाड़ अधिपति महाराणा राज सिंह जी प्रथम की 391 वीं जयंती पर कोटिश नमन ! शाहजहाँ के अंत समय दिल्ली मे सत्ता संघर्ष के समय ''महाराणा राजसिंह'' ने औरंगजेब की कोई सहायता नहीं की जबकि औरंगजेब ने महाराणा से सहायता मांगी थी, उसी समय महाराणा ने रामपुरा क्षेत्र को अपने अधिकार मे ले लिया। औरंगजेब मुगल सुल्तान बन गया परंतु राजसिंह के कृत्य पर ध्यान नहीं दिया, जयपुर के ''राजा जयसिंह'' और जोधपुर के ''राजा जसवंत सिंह'' के देहावसान होने के पश्चात औरंगजेब निश्चिंत होकर हिंदुओं पर जज़िया कर लगा दिया महाराणा राजसिंह ने इसका बिरोध किया। ये भी पढ़ें>> वीर दुर्गादास राठौड़ का इतिहास औरंगजेब जोधपुर पर हमला के दौरान ''रूपगढ़'' रियासत की राजकुमारी का डोला उठवाने हेतु पाँच हज़ार की लस्कर लेकर भेजा उस राजकुमारी ने बुद्धिमत्ता पूर्वक महाराणा को याद किया, महाराणा ने एक बड़ी फौज लेकार उस राजकुमारी की रक्षा की औरंगजेब की सारी फौज मारी गयी, जोधपुर के अल्प बयस्क ''राजा अजीत सिंह'' को औरंगजेब गिरफ

Kachwaho ki nathawant khanp ke pravartak-कछवाहों की नाथावत खांप के प्रवर्तक

  Kachwaho ki nathawant khanp ke pravartak-कछवाहों की नाथावत खांप के प्रवर्तक : वीर शिरोमणि नाथा जी ( वि. सं. 1621 - 1640 ) नाथा जी का जन्म सं. 1582 में करौली के ठाकुर की पुत्री सत्यभामा जी  के उदर से हुआ। नाथा जी के पिता गोपाल जी ( राजा पृथ्वीराज जी के 6 या 7 वें पुत्र ) 1607 में चोमु के ठाकुर बने तथा इससे पूर्व देवास के बास के स्वामी थे। इनके निधन के बाद संवत 1621 में नाथा जी सामोद की जागीर ( यह आमेर राज्य की प्रसिद्ध 12 कोटडियों में से एक थी ) की गद्दी पर बैठे उस समय उनकी आयु 38 वर्ष की थी। ( चौमू भी इन्हीं के नियंत्रण में रही ) नाथा जी बड़े प्रभावशाली पुरुष थे। इश्वर ने भी उनका नाम अमर करने की विधान बनाए थे। संवत् 1607 के पौष बदी तेरस शनिवार को भगवान दास की धर्मपत्नी पवार जी के उदर से इतिहास प्रसिद्ध मान सिंह जी का जन्म हुआ इनके ग्रह देखकर ज्योतिषी ने बताया कि इनको 12 वर्ष एकांत में रखना चाहिए। तदनुसार राजा भारमल जी ने वर्तमान जयपुर से 50 किलोमीटर दूर मौजमाबाद में उनके रहने का प्रबंध किया और अकेले राजकुमार किसी प्रकार अप्रसन्न या विद्या व्यवहारदि से वंचित न रहे, यह सोचकर उनके पास

dehli ke teen din our teen rat ke badshah-दिल्ली के 3 दिन और 3 रात के बादशाह' कौन है वह जानने?

आज हम एक ऐसे वीर के बारे में बताएंगे जिसने  dehli ke teen din our teen rat ke badshah की इतिहासिक गाथा का बखान करेेंगे जिहा दिल्ली के 3 दिन और 3 रात के बादशाह ☀️वह है वीर  राजा भोजराज जी खंगारोत नरायणा: दोहा:- झेलम में झेली राड, बचायो हुरम की लाज। शाही मिजलस में पायो भोज पातशाही ताज।। बादशाह जहांगीर ने जब काबुल की मुहिम पर जाते हुए झेलम नदी के किनारे रोहिताश गढ़ ( पंजाब ) में डेरा डाल रखा था तो एक रोज बादशाह जहाँगीर की बेगम नूरजहाँ शिकार खेलने के लिए झेलम पार कर जंगलों में चली गई, तब वहा शाही सेना के एक सेनापति महावत खान ने 5000 घुड़सवारों के साथ नूरजहाँ पर हमला बोल दिया। नूरजहां के साथ उस समय राजा भोजराज जी खंगारोत 500 घुड़सवारों के साथ थे। नारी सम्मान और उसकी रक्षा राजपूतों का परम धर्म है चाहे वह किसी भी धर्म की क्यों ना हो, यही विचार कर भोजराज जी खंगारोत में 500 घुड़सवारों के साथ महावत खान के 5000 घुड़सवारों का वीरता से मुकाबला किया। भीषण मार काट के बीच भोजराज जी ने नूरजहाँ को सुरक्षित निकाल कर जहाँगीर के डेरे में पहुंचाया। इस युद्ध मे राजा भोजराज जी खंगारोत बुरी तरह जख्मी हो गए। तब उनके

Kumbha ke sainik megha ka pratik- कुम्भा के सैनिक मेघा का प्रतीक

कुंभलगढ़ :Kumbha ke sainik megha ka pratik कुम्भा की सैनिक मेघा का प्रतीक सुदृढ और विकट दुर्ग के रूप में कुंभलगढ़ की अपनी निराली शान और पहचान है। यह किला न केवल मेवाड़ का अपितु समूचे राजपूताना के सबसे दुभेध्य दुर्गों की कोटि में रखा जाता है। वीर विनोद अनुसार राणा कुम्भा ने वि. सं. 1505 में इसकी नींव रखी । उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार मौर्य शासक सम्प्रति ( सम्राट अशोक का द्वितीय पुत्र ) द्वारा निर्मित प्राचीन दुर्ग के भग्नावेश पर किले का निर्माण कार्य कुम्भा के प्रमुख शिल्पी व वास्तुशास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान मंडन की देखरेख में 10 वर्ष तक चला और विस. 1515 में इसका निर्माण संपन्न हुआ। इस अवसर की स्मृति में कुम्भा ने विशेष सिक्के ढलवाये जिन पर " कुंभलगढ़ दुर्ग " का नाम अंकित किया गया । जमीन रो कुण धणी पर्वत मालाओं की गोद में बना कुंभलगढ़ सही अर्थों में एक प्राकृतिक दुर्ग है । चारों तरफ से हरियाली और पर्वत शिखरों से घिरा होने के कारण यह बहुत ऊंचा होते हुए भी दूर से दिखलाई नहीं पड़ता । इस विशेषता के कारण इसका दोहरा महत्व था - जहां एक ओर यह दुर्ग सैनिक अभियानों के संचालन की दृष्टि स

jameen ro koon dhanee-जमीन रो कूण धणी

 जमीन रो कूण धणी  Jameen ro koon dhanee-पहले स्कुल के स्लेबस में एक कविता हुआ करती थी "जमीन रो कुण धणी ?, ओ धणी को वो धणी "  चुरु के किले का इतिहास  कवि पूर्वाग्रसित था। जमीन के कल तक के धणियों से जिन्होंने ये धरती अपने बहुबल से अर्जित की थी, जिनका धर्म केवल जमीन का उपभोग नही था बल्कि कर्तव्य पालन की महती भावना के तहत बलिदान की की पराकाष्ठा जो की आत्मोत्सर्ग ही था, के लिए सदेव तैयार रहते थे, को गलत ढंग से दिखाने के लिए एक सोची समझी रणनीति के तहत लिखा था। उनकी ओछी हरकत जग जाहिर है , मात्र कविताओं में ही नहीं वरन फिल्मों आदि में भी जमीन के धणियों अर्थात जागीरदार, ठाकुरों को गलत दर्शाया गया और अब भी दर्शाया जाता है । मैंने यह कविता जब मेरी पिताजी को दिखाई तो उन्होंने हंस कर जो प्रत्युत्तर दिया वो कुछ इस प्रकार था - काळ चक्र नै देख घुमतो , बोल उठ्यो कोई कवि कणि। इण धरती रो कुण धणी ,ओ धणी को वो धणी ।। काळ देव हंस कर यो बोल्या ,धरती रो ना कोई धणी । धरती है माता सारा की, काळ देव म बीज बणी। नित उपजाऊ नित खपाऊ .आतो रवे बणी ठनी।। कतरा बेटा इणरी खातर, खून देवे और मौत वरे । बिजोड़ा अन धन