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dehli ke teen din our teen rat ke badshah-दिल्ली के 3 दिन और 3 रात के बादशाह' कौन है वह जानने?

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आज हम एक ऐसे वीर के बारे में बताएंगे जिसने  dehli ke teen din our teen rat ke badshah की इतिहासिक गाथा का बखान करेेंगे जिहा दिल्ली के 3 दिन और 3 रात के बादशाह ☀️वह है वीर  राजा भोजराज जी खंगारोत नरायणा: दोहा:-

झेलम में झेली राड, बचायो हुरम की लाज।

शाही मिजलस में पायो भोज पातशाही ताज।।

बादशाह जहांगीर ने जब काबुल की मुहिम पर जाते हुए झेलम नदी के किनारे रोहिताश गढ़ ( पंजाब ) में डेरा डाल रखा था तो एक रोज बादशाह जहाँगीर की बेगम नूरजहाँ शिकार खेलने के लिए झेलम पार कर जंगलों में चली गई, तब वहा शाही सेना के एक सेनापति महावत खान ने 5000 घुड़सवारों के साथ नूरजहाँ पर हमला बोल दिया। नूरजहां के साथ उस समय राजा भोजराज जी खंगारोत 500 घुड़सवारों के साथ थे। नारी सम्मान और उसकी रक्षा राजपूतों का परम धर्म है चाहे वह किसी भी धर्म की क्यों ना हो, यही विचार कर भोजराज जी खंगारोत में 500 घुड़सवारों के साथ महावत खान के 5000 घुड़सवारों का वीरता से मुकाबला किया। भीषण मार काट के बीच भोजराज जी ने नूरजहाँ को सुरक्षित निकाल कर जहाँगीर के डेरे में पहुंचाया। इस युद्ध मे राजा भोजराज जी खंगारोत बुरी तरह जख्मी हो गए। तब उनके इलाज करने पर उनके शरीर के 52 टंक हड्डियों का चूरा निकला जिसे उन्होंने अपने जीवनकाल में ही गंगा नदी में बहा दिया। 

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जहाँगीर ने राजा भोजराज जी खंगारोत की वीरता से उन्हें दिल्ली का तीन दिन और तीन रात का बादशाह बनाया एवं राजा की पदवी प्रदान की एवं जो चाहा वो मांगने का वचन दिया। राजा भोजराज जी खंगारोत ने जहाँगीर को प्रतिउत्तर दिया - मुझे अधिक कुछ नहीं चाहिए , आप बस हिंदुओं पर लगा जजिया कर समाप्त करने और ब्राह्मण एवं गऊ को परेशान ना करने का वचन दीजिए । राजा भोजराज जी को वीरता के कारण ही जहाँगीर ने हिंदुओ पर से जजिया कर हटाया एवम गऊ और ब्राह्मणों को सताने का कार्य बंद किया।

वंश परिचय : आमेर के कच्छवाहा शासक पृथ्वीराज जी 12 पुत्र थे जिनमें भींव सिंह जी सबसे बड़े, सबसे छोटे पूरणमल जी तथा 6 वें पुत्र जगमाल जी थे।

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. कह से प्राप्त की थी | शिलालेख नरायणा से प्राप्त की हुई थी 

इमेज : नारायणा में स्थापित राजा भोजराज जी की बीस खंभो की छतरी और उसमे प्रतिस्थापित देवली व शिलालेख की है।

इतिहास प्रसिद्ध खानवा युद्ध में जगमाल जी व पृथ्वीराज जी राणा सांगा के सहयोगी रहे । 

पृथ्वीराज जी ने अपनी प्रिय रानी का मन रखने के लिए बड़े पुत्र भींव जी की जगह उसके पुत्र पूरणमल जी को आमेर का उतराधिकारी घोषित कर दिया साथ ही जगमाल जी को सायवाड की जागीर प्रदान की । इस प्रकार अपने 12 पुत्रों में विभाजित की गई जागीरी आमेर के इतिहास में " 12 कोटड़ी " के नाम से प्रसिद्ध है।

इधर जगमाल जी वास्तविक उतराधिकारी के मसले में भीव सिंह जी का पक्ष रखा तथा भींव जी के साथ हुए अन्याय का विरोध किया तो पृथ्वीराज जी ने उन्हें तत्काल राज्य से निष्काशित कर दिया गया। आमेर से रूष्ट होकर जगमाल साईवाड चले आए और पिता द्वारा प्राप्त जागीर को चारणों और ब्रह्माणों में दान कर दी। 

लेकिन अभी तक पिता के विरूद्ध रोष उनमें व्याप्त था , अतः जगमाल जी ने अपने पुत्र राव खंगार जी { ज्ञातव्य हो कि राव खंगार जी जगमाल जी के सबसे वीर पुत्र थे जिन्होंने " खड़ग पाण" ( तलवार के दम पर ) कई युद्धों में विजय प्राप्त की तब से खंगार जी के वंशज खंगारोत कहलाए और उन्हें " खड़ग विजय खंगार " के नाम से विरुद किया गया। } व रामचंद्र जी , जैसाजी सारंग जी और सिंघा जी आदि ने मिलकर आमेर के अधीन आने वाले बोराज गढ़ पर आक्रमण किया, जिसमे इनके तीन पुत्र काम आए ( सारंग जी आसलपुर के मार्ग पर तथा सिंघा जी और जैसा जी बोरज गढ़ के भीतर )।

कुछ समय पश्चात इन्होंने कालख जीता और फिर जोबनेर विजित कर वह वहां अपनी कोटड़ी बसाई तथा अपनी पत्नी नैत कंवर (आसल) जो अमरकोट की सोढ़ी राजकुमारी थी, के नाम पर आसलपुर कस्बा बसाया। शेरशाह ने जब 1539 ई. में हुमायूं से दिल्ली जीता तो हुमायूं जान बचाकर परिवार सहित शरणं पाने हेतु अमरकोट अा पहुंचा । तब उसकी पत्नी हमीदा बानो गर्भवती थी । शरणागतो का संरक्षण राजपूत धर्म का अभिन्न अंग था अतः जगमाल जी ने अपनी पत्नी के माध्यम से अमरकोट में हुमायूं कि गर्भवती पत्नी को शरण दिलवाई, जिसने आगे चलकर अकबर को जन्म दिया। अकबर अपने जीवन काल के शुरुआती दिनों में राव जगमाल जी की पत्नी एवं राव खंगार जी को मा रानी आसल दे ( नेत कँवर ) की देख रेख में ही रहा था। इसी कारण से अकबर राव जगमाल जी को बाबा एवम राव खंगार जी को बाबा का बेटा कहता था

जब हुमायूं 1555 में फिर से दिल्ली शासक बना तो उसने जगमाल जी को नरेना कि जागीर प्रदान की ।

आगे चलकर उनके बड़े पुत्र खंगार जी , तत्पश्चात खंगार जी के बड़े पुत्र नारायणदास जी नरेना के स्वामी हुये। इनके समय में दादू महाराज नराणा ( जयपुर) पधारे।

( जो 1643 में सांभर फिर आमेर तथा फतेहपुर सीकरी के बाद नारायणा ) । उन्होंने इस नगर को साधना, विश्राम तथा धाम के लिए चुना।

नारायणदास जी ने दादूदयाल जी एवम् उनके अनुयाई संतों को नरेना में धर्म के प्रचार- प्रसार एव रहने के लिए जमीन प्रदान की। दादू जी ने यहाँ एक खेजडे के वृक्ष के नीचे विराजमान होकर लम्बे समय तक तपस्या की ।इनके द्वारा स्थापित “दादू पंथ” व “दादू पीठ” आज भी मानव मात्र की सेवा में निर्विघ्न लीन है। नारायणदास जी के पुत्र दिल्ली दरबार में जान बुजकर उपस्थित होने बंद कर दिया । यह सिलसिला काफी दिन तक चलता रहा , अंततः जहांगीर ने नरेना ( नारायणा ) की गद्दी पर नारायणदास जी की जगह उन्हीं के छोटे भाई बाघ सिंह जी को यहां की गद्दी पर बैठा दिया। दुर्भाग्यवश बाघ सिंह जी को भी किसी पुत्र रत्न की प्राप्ति नहीं हुई इन्होंने अपने भाई मनोहरदास जी के सबसे छोटे पुत्र भोजराज जी को गोद लिया और गद्दी पर बैठाया। कालांतर में भोजराज जी अपनी वीरता और शौर्य के के बल पर " राजा की उपाधि " प्राप्त करने वाले प्रथम खंगारोत राजपूत बने । 

इनका शासनकाल " नरेना का स्वर्णयुग " माना जाता है ।

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