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ठाकुर डूंगरसिंह जी, ठाकुर जवाहरसिंह जी शेखावत 1 thakur Dungarsinghji, thakur jawaharsinghji shekhawat

ठाकुर डूंगरसिंह जी, ठाकुर जवाहरसिंह जी शेखावत भाग 1(thakur Dungarsinghji, thakur


jawaharsinghji shekhawat ) यह भाग पहला हैं इस पेज का दूसरा भाग का लिंक नीचे दिया गया है 

भारतीय स्वतन्त्रता के लिए संघर्षरत राजस्थानी योद्धाओं में शेखावाटी के सीकर संस्थान के बठोठ पाटोदा के ठाकुर डूंगरसिंह जी, ठाकुर जवाहरसिंह जी शेखावत का स्थान प्रमुख है। बठोठ पाटोदा के डूंगरसिंह जवाहरसिंह का विद्रोहात्मक संघर्ष बड़ा संगठित, सशक्त और अग्रेज सत्ता को आतंकित कर देने वाला था। ठाकुर जवाहरसिंह और ठाकुर डूंगरसिंह के साथ शेखावाटी के खीरोड़, मोहनवाड़ी, मझाऊ, खड़ब तथा देवता ग्रामों के सल्हदीसिंहोत, ठाकुर सम्पतसिंह के नेतृत्व में आ मिले थे। 

यह अंग्रेज विरोधी संघर्ष केवल ठाकुर जागीरदारों तक ही सीमित नहीं था अपितु जाट, मीणें, गूजर, लुहार, नाई आदि जातियों के जागृत लोगों के सक्रिय सहयोग से आरम्भ हुआ था। राजपूत के बारे में जाने

सांवता मीणा, लोटिया जाट, बालिया नाई, करणिया मीणा आदि के उल्लेख से यह तथ्य स्पष्ट ही सत्य प्रकट होता है। 

इस संगठित अभियान को संचालित करने में ठाकुर जवाहरसिह प्रमुख थे।

ठाकुर जवाहरसिंह और डूंगरसिह चचेरे भ्राता थे। 

सीकर के अधिपति राव शिवसिंह शेखावत (सं. 1778-1805) के लघुपुत्र ठाकुर कीर्तिसिंह के पुत्र ठाकुर पदमसिह को बठोठ पाटोदा की जागीर मिली थी। 

ठाकुर पदमसिंह ने सीकर के पक्ष में सं. 1837 में खाटू के प्रसिद्ध युद्ध में भाग लिया था। 

तदनन्तर वि.सं. 1844 में कासली के युद्ध में काम आए। ठाकुर पदमसिंह के दलेलसिंह, बख्तसिंह, केशरीसिह और उदयसिंह चार पुत्र थे। पदमसिंह के वीरगति प्राप्त करने के बाद दलेलसिंह बठोठ का स्वामी बना और उपरोक्त नाम निर्देशित तीनों भ्राताओं को पाटोदा दिया गया। ठाकुर दलेलसिंह बठोठ के पुत्र विजयसिंह और जवाहरसिह तथा उदयसिंह के डूंगरसिंह और रामनाथसिंह थे। इस प्रकार जवाहर सिंह तथा डूंगरसिंह चचेरे भ्राता थे। जाने डोगरा राजपुतो के बारे में 

जयपुर राज्य की सन् 1818 ई. में अंग्रेजों के साथ संधि हुई। यह संधि शेखावाटी के स्वामियों को पसंद नहीं थी। 

राव हनुवन्तसिंह शाहपुरा, रावराजा लक्ष्मणसिंह सीकर और ठाकुर श्यामसिह बिसाऊ आदि शेखावत जयपुर अंग्रेज संधि के विरुद्ध थे। फलतः शेखावाटी प्रदेश के रावजी के, लाडखानी और सल्हदीसिंहोत शेखावतों ने अपनी शक्तिसामर्थ्वानुसार अंग्रेज शासित भू-भागों में धावे मारकर अराजकता की स्थिति उत्पन्न की। 

बीकानेर के चूरू तथा जोधपुर के डीडवाना क्षेत्र के स्वतन्त्रा प्रमी ठाकुरों ने शेखावाटी का अनुसरण कर ब्रिटिश सत्ता को चुनौती-सी दे दी।

1890 वि. रावराजा लक्ष्मणसिंह का देहान्त हो गया ओर उनके पुत्र रावराजा रामप्रतापसिंह सीकर की गद्दी पर बैठे तब जयपुर में शिशु महाराजा रामसिंह द्वितीय सिंहासनारूढ़ थे।

जयपुर की जनता ने अंग्रेज विरोधी भावना से उद्वेलित होकर जयपुर के पोलिटिकल एजेण्ट के सहायक अंग्रेज अधिकारी मि. ब्लेक को मार डाला। इस घटना से अंग्रेज और भी भयभीत और सतर्क हुए और जयपुर के सुसंगठित शेखावत संगठन का दमन करने के लिए ‘‘शेखावाटी ब्रिगेड’’ अभिधेय सैनिक संगठन गठित किया और मिस्टर फास्टर को उसका कमाण्डर नियुक्त किया।

शेखावाटी ब्रिगेड की स्थापना का उद्देश्य शेखावाटी, तंवरावटी, चूरू और लुहारू क्षेत्र में पनप रहे ब्रिटिश सत्ता विरोधी विद्रोह को शान्त करना था। यद्यपि राजनैतिक परिस्थितियों से पीड़ित रियासती राजाओं ने अंग्रेजों से संधियां की थीं, पर वस्तुतः वे भी अंग्रेजों के बढ़ते हुए प्रभाव को पसन्द नहीं कर रहे थे। किन्तु खुले रूप में अथवा खुले मैदान में उनका विरोध करने का साहस भी उनमें नहीं था। सबसे प्रबल कारण तो यह था कि मरहठों और पिंडारियों की लूट-खसोट और आए दिन के बखेड़ों से अंग्रेजों के माध्यम से छुटकारा मिला था। मरहठों की लोलुपता और अत्याचारों का धुंआ थोड़ा-थोड़ा दूर ही हुआ था। इसलिए राजाओं के सामने सांप-छुंछूदर की सी स्थिति थी। पर ठिकानेदार, छोटे भू-स्वामी और जनमानस अंग्रेजों के साथ हुए संधि समझौते से क्षुब्ध थे और वे अग्रेजों की छत्रछाया को अमन चैन के नाम पर गलत मानते थे। फलतः अंग्रेज सत्ता और उनके प्रच्छन्न-अप्रच्छन्न समर्थक सहयोगियों से स्वातंत्रयचेता वीर अनवरत सक्रिय विरोध करते आ रहे थे।

शेखावाटी ब्रिगेड में शेखावाटी के ठाकुर अजमेरीसिंह पालड़ी और ठाकुर डूंगरसिह पाटोदा प्रभावशाली व्यक्ति थे। डूंगरसिंह पाटोदा तो अश्वारोही सेना में रिसलदार के पद पर थे।

सीकर के रावराजा रामप्रतापसिंह और उनके उत्तराधिकारी वैमात्रेय भ्राता रावराज भैरवसिंह, खवासवाल भ्राता मुकुन्दसिंह सिंहरावट, हुकमसिंह सीवोट रामसिंह नेछवा आदि के पारस्परिक अनबन चल रही थी। राव राजा रामप्रतापसिंह के सगोत्रीय बंधु ठिकानेदार बठोठ, पाटोदा तथा सिंहासन और पालड़ी के अधीनस्थ जागीरदार रावराजा के विरुद्ध उनके वैमातृक भ्राता भैरवसिंह तथा खवासवाल बंधुओं की सहायता कर रहे थे। इधर अंग्रेज सत्ता इस विग्रह के सहारे सीकर और शेखावाटी में अपने हाथ-पैर फैलाने का अवसर दूंढ रही थी और उधर राव राजा रामप्रतापसिंह अपने बल से उन्हें दबाने में सबल नहीं थे। अतएव अंग्रेजों की सहायता से वे उनका दमन करना चाहने लगे।

शेखावाटी की इस राजनैतिक परिस्थिति की अनुभूति कर ठाकुर डूंगरसिह सं. 1891 वि. में अपने कुछ साथियों को तैयार कर शेखावाटी ब्रिगेड से विद्रोह कर बैठा और वहां से शस्त्र, घोड़े और ऊंट छीनकर विद्रोही बन गया। वह अंग्रेज शासित गांवों में लूट मार करने लगा। उधर सिंहरावट के खवासवाल ठाकुर बन्धु सीकर और अंग्रेज सरकार का विरोध कर ही रहे थे। इस स्थिति की विषमता का मूल्यांकन कर कर्नल एल्विस ने बीकानेर के महाराजा रतनसिंह से प्रबल अनुरोध किया कि डूंगरसिंह को येनकेन प्रकारेण बन्दी बनाया जाय। डूंगरसिंह की सिंहरावट के जागीरदारों के साथ सक्रिय सहानुभूति थी। बीकानेर नरेश ने लोढ़सर के ठाकुर खुमानसिंह को विद्रोहियों का पता लगाने पर नियत किया। वह ठाकुर जवाहरसिंह बठोठ का साला था और स्वयं भी अंग्रेजों के विरुद्ध था। उसने उनका मार्गण कर किशनगढ़ राज्य के ढसूका नामक गांव में उनकी उपस्थिति की सूचना दी। डूंगरसिंह ने इसी काल में मथुरा के एक धनाढ्य सेठ की हवेली पर धावा मारकर पर्याप्त द्रव्य लूट लिया और सेठ के परिवार को धन के लिए अपमानित भी किया। ठाकुर डूंगरसिंह और जवाहरसिंह का अजमेर मेरवाड़ा के प्रमुख भूपति राजा बलवन्तसिंह भिनाय तथा राव देवीसिंह खरवा तथा झड़वामा के गौड़ भैरवसिंह से निकट का सम्बन्ध था। राजा बलवन्तसिह के उत्तराधिकारी राजा मंगलसिंह का पणिग्रहण भोपालसिंह बठोठ की पुत्री तथा राव देवीसिंह खरवा के पुत्र कु. विजयसिंह करणेस का विवाह डूंगरसिह की सहोदरा के साथ हुआ था और डूंगरसिंह स्वयं भड़वासा के गौड़ों के वहां विवाहा था। डूंगरसिंह का इसलिए भी अजमेर मेरवाड़ा में आवागमन बना रहता था। जयबाण तोप का इतिहास 

राव राजा रामप्रतापसिंह की असमर्थताजन्य आपत्ति पर कर्नल सदरलैड ने शेखावाटी ब्रिगेड के सर्वोच्च अंग्रेज अफसर फास्तर को जयपुर, सीकर और अपनी अधीनस्थ सेना सहित आदेश दिया कि सिंहरावट दुर्ग को हस्तगत कर विद्रोह को समाप्त करें। मेजर फास्तर ने सिंहरावट को चारांे ओर से घेरकर किले पर श्राक्रमण किया। ठाकुर मुकुंदसिंह वगैरह एक माह तक सामुख्य कर अन्त में यकायक किला त्यागकर लड़ते हुए निकल गए।

उधर डूंगरसिह ने संवत् 1893 चैत्रमास में सीकर राज्य के कतिपय गांवों पर धावे मारकर ठाकुर जवाहरसिंह के ससुराल लोड़सर ठाकुर खुमानसिंह के पास चला गया। बीकानेर राज्य की सेना ने ठाकुर हरनाथसिंह मघरासर और माणिक्यचन्द सुराना के नेतृत्व में लोढ़सर दुर्ग पर आक्रमण किया। तब ठाकुर जवाहरसिंह, भीमसिंह और ठाकुर खुमानसिंह बीदावत लोढ़सर से निकल कर जोधपुर की ओर चले गए

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