हाड़ी रानी का रहस्यम इतिहास 1
राजपूताना की इस मिट्टी ने एक तरफ अल्हड़ वीरों को जन्म दिया। वहीं यहाँ कई ऐसी विरांगनाए भी थी, जिनकी मिसाल आज भी दी जाती है। इन्हीं नामों में से एक नाम है हाड़ी रानी !
हाड़ी रानी की वीरता और अमर बलिदान की गाथा, इतिहास के अनगिनत पन्नों में छिपी सैकड़ों गाथाओं में से एक है।
हाड़ाओं की शौर्य स्थली " बूंदी " के नरेश संग्राम सिंह जी की सुपुत्री सलह कंवर जो इतिहास में " हाड़ी रानी " के नाम से विख्यात हुईं। इनका विवाह सलूंबर रावत रतन सिंह चूंडावत के साथ हुआ ।
हड़ारानी को ससुराल आये अभी तीन दिन भी पूरे नहीं हुए थे। तभी मेवाड़ के तत्कालीन महाराणा राज सिंह जी का तत्काल औरंगजेब के खिलाफ युद्ध के लिए सन्देश प्राप्त हुआ ।
लेकिन चूंडावत जी नवविवाहिता के लावण्य में पड़ कर कर्तव्य से विचलित हो रहे थे। युद्ध स्थल में जाने के बाद भी उन्होंने स्मरण हेतु रानी से निशानी मांगी, उस समय उनकी पत्नी ने उनको क्षत्रिय कर्तव्य पर स्थिर रखने के लिये अपनी जो निशानी स्वरुप शीश भेजा, वह अतुलनीय है। उसकी तुलना संसार के किसी बलिदान से नहीं की जा सकती।
हाड़ी रानी सलह कंवर के त्याग पर डिंगल कवि नाथूसिंह सिंह जी लिखते है कि -
सीस मंडासो नह कियो, सीस दियो जिण वार।
पड़तो अंबर थांबियो, हाड़ी रजवट भार।।
अर्थात :-
"वीरांगना हाड़ी ने जब अपना मस्तक बलिदान किया तब उसने गिरते हुए क्षत्रियत्व के भार रूपी आकाश को बिना मंडासे के झेल लिया।"
विजय हेतु प्रेरित करने के लिए एक ऐसा बलिदान, जिसे करना तो दूर, सोचना भी शायद मुमकिन नहीं। इसी लिए मेवाड़ के स्वर्णिम इतिहास में हाड़ी रानी को विशेष स्थान दिया गया है।
इस वीर गाथा सुन स्वयं महाराणा राज सिंह जी को यह कहना पड़ा कि :-
हेक सलूम्बर में दई , या सिर दीधा दोय।
राज दिया कहे राजसी , रण पलणो कद होय।।
अर्थात:- " मैने केवल एक सलूम्बर दिया था, जिसके बदले मै एक सिर लेने का अधिकारी था लेकिन इन लोगो ने तो मुझे दो सिर दिए है। मै इस ऋण को पूरा मेवाड़ देकर भी नहीं चूका सकता।"
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