वीरधर्म ( heroic religion) : युद्ध में घायल हो रण उन्माद में घूमना
सच्चा क्षत्रिय वीर heroic युद्ध में घायल हो, खाट नहीं पकड़ता वरन रोष और प्रतिशोध की ज्वाला में जलता हुआ बडबडाता है तथा घाव से घायल हुआ भी रणोन्माद में घूमता है।
इस आशय का ईश्वर दास जी का कथन है कि-
मतवाळा घूमै नहीं, नहं घायल बरड़ाय ।
बालि सखी ऊ द्रंगड़ों, भड बापडा कहाय ।।
ठीक ऐसा ही भाव सूर्यमल मिश्रण ने भी व्यक्त किया है-
" दिन में देखूं जूझतो, निस घावां बरडाय।"
यहां "बरडा़ना" से तात्पर्य नींद में प्रलाप करने से नहीं है जैसा कि प्राय लोग किया करते हैं अपितु यह रोषोन्मत वीर का घायल और निद्रा अवस्था में भी शत्रु से प्रतिशोध लेने हेतु व्यक्त एस अस्फुट विरोद्गार है। तात्पर्य यह है कि सच्चे वीर के अवचेतन में भी लड़ने और शत्रु से बैर का बदला लेने की ही चाह लगी रहती है जिससे वह नींद में भी क्रोध से बडबडाता है और घायल हुआ भी झूमता है।
सूर्यमल मिश्रण ने इसे ही वीर धर्म कहा कहा है।
"रतनधाय धुम्मन ही विरंचन धर्म बीरन को रच्यो"
अर्थात ब्रह्मा ने वीरों का धर्म युद्ध में घावों से घूमने का ही रचा है।
यथा- "चालुक्यराज रा शूरवीर लोहछक होय घूंमता लाघा " इनके अतिरिक्त राजपूत वीरों में युद्ध विषयक कई अन्य विश्वास भी प्रचलित रहे हैं यथा "युद्ध में धराशायी हुए वीरों के रक्त से कालिका का तृप्त होना, सूर्य का अपने रथ रोककर युद्ध देखना, नारद का उल्लासित हो अट्टहास करना, योगिनियों का जय - जयकारा करना।
वस्तुतः इन सब विश्वासों के मूल में वीर को अद्भुत पराक्रम प्रदर्शित करने की प्रेरणा देना का भाव ही निहित है। इनसे प्रेरित हो राजस्थान के राजपूत वीरों ने युद्ध भूमि में जिस आपूर्व पराक्रम का प्रदर्शन किया है, वह वीरता के इतिहास में रक्त की लालिमा से लिखा शौर्य का अमिट अभिलेख है ।
राजस्थान की वीरता का गौरवमई परंपराओं के मूल में इन्हीं विश्वासों की प्रेरणा रही है। अतः इनका अध्ययन प्रकारांतर से सांस्कृतिक परंपराओं के अध्ययन का ही अंग है।
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