History of stupa in Hindi - स्तूप का इतिहास हिंदी में
History of stupa in Hindi - स्तूप का इतिहास हिंदी में स्तूप का अपना इतिहास है। कुछ इतिहास स्तूप बताते हैं कि वे कैसे बने साथ-साथ इनकी खोज का भी इतिहास है।
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अब हम इनकी खोज के इतिहास पर एक नज़र डालें। 1796 में स्थानीय राजा को जो मंदिर बनाना चाहते थे, अचानक अमरावती के के अवशेष मिल गए। उन्होंने उसके पत्थरों के इस्तेमाल करने का निश्चय किया।
उन्हें ऐसा लगा कि इस छोटी सी पहाड़ी में संभवतः कोई खजाना छुपा हो। कुछ वर्षों के बाद कॉलिन मेकेंजी नामक एक अंग्रेज़ अधिकारी इस इलाके से गुजरे हालांकि उन्होंने कई मूर्तियाँ पाई और उनका विस्तृत चित्रांकन भी किया, लेकिन उनकी रिपोर्ट कभी छपी नहीं।
1854 में गुंटूर (आंध्र प्रदेश) के कमिश्नर ने अमरावती की यात्रा की।
उन्होंने कई मूर्तियाँ और उत्कीर्ण पत्थर जमा किए और वे उन्हें मद्रास ले गए। (इन्हें उनके नाम पर एलियट संगमरमर के नाम से जाना जाता है)।
उन्होंने पश्चिमी तोरणद्वार को भी निकाला और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अमरावती का स्तूप बौद्धों का सबसे विशाल और शानदार स्तूप था।
1850 के दशक में अमरावती के उत्कीर्ण पत्थर अलग-अलग जगहों पर ले जाए जा रहे थे। कुछ पत्थर कलकत्ता में एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल पहुँचे, तो कुछ मद्रास में इंडिया ऑफिस ।
कुछ पत्थर लंदन तक पहुँच गए। कई अंग्रेज अधिकारियों के बागों में अमरावती की मूर्तियों पाना कोई असामान्य बात नहीं थी।
वस्तुतः इस इलाके का हर नया अधिकारी यह कहकर कुछ मूर्तियाँ उठा ले जाता था कि उसके पहले के अधिकारियों ने भी ऐसा किया।
पुरातत्ववेत्ता एच.एच. कोल उन मुट्ठी भर लोगों में एक थे जो अलग सोचते थे। उन्होंने लिखा " इस देश की प्राचीन कलाकृतियों की लूट होने देना मुझे आत्मघाती और असमर्थनीय नीति लगती है।" वे मानते थे कि संग्रहालयों में मूर्तियों की प्लास्टर प्रतिकृतियाँ रखी जानी चाहिए जबकि असली कृतियाँ खोज की जगह पर हीरखी जानी चाहिए। दुर्भाग्य से कोल अधिकारियों को अमरावती पर इस बात के लिए राजी नहीं कर पाए। लेकिन खोज की जगह पर ही संरक्षण की बात को साँची के लिए मान लिया गया।
साँची क्यों बच गया जबकि अमरावती नष्ट हो गया? History of stupa in Hindi
शायद अमरावती की खोज थोड़ी पहले हो गई थी। तब तक विद्वान इस बात के महत्त्व को नहीं समझ पाए थे कि किसी पुरातात्विक अवशेष को उठाकर ले जाने की बजाय खोज की जगह पर ही संरक्षित करना कितना महत्वपूर्ण था। 1818 में जब साँची की खोज हुई, इसके तीन तोरणद्वार तब भी खड़े थे। चौथा वहीं पर गिरा हुआ था और टीला भी अच्छी हालत में था। तब भी यह सुझाव आया कि तोरणद्वारों को पेरिस या लंदन भेज दिया जाए। अंतत: कई कारणों से साँची का स्तूप वहीं बना रहा और आज भी बना हुआ है जबकि अमरावती का महाचैत्य अब सिर्फ एक छोटा सा टीला है जिसका सारा गौरव नष्ट हो है। चुकआ
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