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पन्नाधाय अपने पुत्र का बलिदान देकर राजवंश की रक्षा की

पन्नाधाय अपने पुत्र का बलिदान देकर राजवंश की रक्षा की थी?  पन्नाधाय मेवाड़ के इतिहास में पन्ना धाय का नाम हमेशा स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाता रहेगा मेवाड़ के महाराणा वंश की रक्षा करने का श्रेय पन्नाधाय को ही  हैं वह खीची चौहान वंश की क्षत्राणी थी उदय सिंह को जन्म से पालती थी पन्ना धाय का लड़का चंदन और उदय सिंह हमउम्र थे बनवीर ने विक्रमादित्य की हत्या के बाद राजकुमार उदय सिंह को भी मारने चला ताकि राज्य के अंतिम दावेदार को मारकर निष्कटक राज्य भोगा जाये  मेहलों में कोलाहल से उदय सिंह की धायपन्त्रा को महाराणा को मारे जाने का ज्ञान हो गया था उसने उदय सिंह को महल से बाहर निकाल दिया और उसी के उम्र के अपने पुत्र चंदन को राजकुमार उदय सिंह के पलंग पर उसे सुला दिया बनवीर ने उदय सिंह के महल में आकर पन्ना से पूछा कि उदय सिंह कहां है तो उसने पलंग की तरफ संकेत किया बनवीर ने एक ही वार में उदयसिंह के पलंग पर सोये पन्नाधाय के पुत्र  का काम तमाम कर दिया उदयसिंह को लेकर पन्ना महलों से निकाल आई बनवीर मेवाड़ का स्वामी बनकर राज्य करने लगा | उसने उन सरदारो पर सख्ती   करनी शुरू कर दी जो उसने अकुलीन मानते

लाल किला किसने बनवाया और कब?

लाल किला किसने बनवाया :- हमारे देश में अधिकांश ऐतिहासिक स्थलों का हिंदू निर्माण छुपा कर उसे मुगलों या किसी विदेशी आक्रमणकारी नवाब या बादशाह या सुल्तान द्वारा निर्मित दिखाई जाने की बहुत ही खतरनाक प्रवृत्ति चली आ रही है । इस प्रवृत्ति के चलते देश के इतिहासकारों और लेखकों ने भी उन तथ्यों और प्रमाणों की पूर्णतया उपेक्षा की है जो किसी भी ऐतिहासिक भवन या किले आदि को किसी हिंदू राजा द्वारा निर्मित स्थापत्य कला का एक बेजोड़ नमूना सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं । पी0एन0 ओक के शब्दों में कहें तो ये लोग अपने तथाकथित बौद्धिक अहंकार के कारण गर्दन ऊपर उठाकर चलते हैं , और नीचे पैरों में पड़े अनेकों प्रमाणों को कुचलते चले जाते हैं । इन लोगों की इसी खतरनाक प्रवृत्ति के चलते दिल्ली का लाल किला अनेकों प्रमाणों के होने के उपरांत भी इन लोगों ने मुगल बादशाह शाहजहां के नाम कर दिया है । जबकि प्रमाण ये भी हैं कि मुगलों से पहले तुर्कों की राजधानी भी दिल्ली रही और उनसे पहले अनेकों हिंदू सम्राट और राजाओं की राजधानी भी दिल्ली रही है । स्वाभाविक रूप से प्रश्न किया जा सकता है कि यदि मुगलों से पहले भी दिल्ली रा

रक्षाबंधन का इतिहास बताएगे -हिन्दी में

रक्षाबंधन का इतिहास बताएगे -हिन्दी में  रक्षाबंधन त्यौहार  का इतिहास व्दापर युग में भगवान विष्णु के समय से आरंभ होता है दैत्य का राजा बलि ने स्वर्ग व मृत्यु  लोक पर अपना अधिकार करने के लिए 110  यज्ञ पूर्ण  करता है इसलिए देवताऔ को स्वर्ग लोक की रक्षा के लिए भगवान विष्णु से चाहिता के लिए कहते हैं  भगवान विष्णु  वामन अवतार लेते हैं |और भगवान विष्णु राजा बालि के राज्य मे  जाते हैं |राजा बालि यज्ञ पूर्ण कर बह्रामणो को दान देता है, उस समय भगवान वामन अवतार में राजा बालि से भीक्सा में तीन कदम जमीन मांगते है राजा बालि खुश होकर कहता है बह्मण देवता ले लिजीये | राजा बालि तीन कदम जमीन दान कर देता है भगवान ने पहले कदम में स्वर्ग लोक मापते है और दूसरे कदम में मृत्यु लोक माप लेते हैं और भगवान वामन बोलते हैं कि में तीसरा कदम कह पर रहखु तो राजा बालि अपना सर पर रखने को कहते हैं तो भगवान तीसरा कदम राजा बालि के सर पर रखते हैं जिससे राजा बालि जमीन के गर्भ में चले जाते है उस समय भगवान से वचन लेता है राजा बालि कि आप मेरे सामने रहो यह वचन लेता है |भगवान राजा बालि के द्वारपाल बनते देख माता लक्ष्मी

राजस्थान के 5 लोक नृत्य। जाने कोनसे है?

 राजस्थान के लोक नृत्य आइए हम राजस्थान के लोक नृत्यों के बारे में जानें। राजस्थान के लोक नृत्य लुभावने और आकर्षक हैं। वे आपको नर्तकियों के साथ एक या दो टैप करने के लिए प्रेरित करने के लिए बाध्य हैं। राजस्थानी नृत्य अनिवार्य रूप से लोक नृत्य हैं। उनकी उत्पत्ति ग्रामीण रीति-रिवाजों और परंपराओं में है। राजस्थान के ये पारंपरिक नृत्य बिल्कुल रंगीन और जीवंत हैं। उनका अपना महत्व और शैली है। वे आकर्षक और कुशल हैं। वे हर आयु वर्ग द्वारा आनंद ले रहे हैं। राजस्थान के कुछ लोकप्रिय लोक नृत्य रूपों को यहां दिया गया है 1- घूमर नृत्य यह राजस्थान का सबसे लोकप्रिय लोक नृत्य रूप है। यह मूल रूप से महिलाओं के लिए एक सामुदायिक नृत्य है। वे इसे संदिग्ध घटनाओं और अवसरों के दौरान प्रदर्शन करते हैं। 'घूमर' नाम 'घूमना' शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ है सुंदर ढंग से गेरेट करना। महिला नर्तक अपने चेहरे को घूंघट से ढकती हैं। वे पारंपरिक गीत गाते हुए नृत्य करती हैं। वे गोलाकार आंदोलन करती हैं जो उनके बहते हुए घाघरों के शानदार रंगों को प्रदर्शित करती हैं। । 2- कालबेलिया नृत्य यह प्राचीन लोक

चुरु के किले का इतिहास 1694

चुरू के किले का इतिहास 1739         भारत के राजस्थान राज्य का चूरू में स्थित दुर्ग जहा के शासक ने शत्रुओं पर चांदी के गोले दाग कर इतिहास में अलग ही छाप छोड़ दी। चुरु का प्राचीन नाम राजगढ है । चूरू दुर्ग : विभिन्न स्रोतों से ज्ञात होता है कि किले का निर्माण 1739 में हुआ। कुछ का मानना है कि इसका निर्माण ठाकुर कुशल सिंह ने 1694 ईस्वी में करवाया था। ठाकुर कुशल सिंह के वंशज ने 1857 के विद्रोह में अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। इससे अंग्रेजी हुकूमत भड़क उठी फिर बीकानेर से सेना बुलाई और किले को घेर लिया।   किले कि सुरक्षा केसे की ठाकुर कुशल सिंह ने ?दोनों तरफ से तोपों ने जमकर गोले बरसाए। एक समय ऐसा आया गया जब किले में गोले खत्म हो गया। यह सब देखते हुये लुहारों ने मोर्चा संभाला। लोहे को गलाकर गोले बनाने शुरू कर दिए लेकिन, वे भी समाप्त हो गए। और गोले बनाने के लिए सामग्री नहीं बची। तब चूरू के सेठ—साहूकारों ने की रक्षा के लिए अपनी तिजोरियां खोल दी और चांदी लाकर ठाकुर के समर्पित कर दी। लुहारों और सुनारों ने मिलकर चांदी के गोले बनाए फिर इनमें बारूद भरा गया था। तापों ने जैसे

कुँवर वीर पृथ्वीसिंह का इतिहास

कुँवर वीर पृथ्वीसिंह का इतिहास -जोधपुर के शासक थे।  गौरवगाथा कुंवर पृथ्वी सिंह मारवाड़ ,एक ऐसा वीर बालक के इतिहास   बारे में हम अवगत कराएगे जिसकी बहादुरी से दिल्ली के बादशाह औरंगजब के भी होस उड़ गई । वह है राजा जशंवत सिंह के लाडले वीर पुत्र पृथ्वीसिंह एक बार एक शिकारी जंगल से शेर पकड कर लाता हैं कुछ औरंगजेब के मन्त्री उस शिकारी को बादशाह के दरबार में  शेर को लाने को कहता हैं। वह शिकारी शेर को लोहे के पिंजरे में बंद कर लाता है ओरंगजेब अपने दरबार में पिंजरे में बंद भयानक शेर को देख इतराते हुए बोला “इससे खतरनाक शेर नही हो सकता है” ! ओरंगजेब के दरबार में बैठे उसके गुलाम मन्त्री  ने भी उसकी हामी भरते बोले । हाँ हुजूर ऐसा शेर हमारे राज्यो में कही भी नही है यह बात जोधपुर के  महाराजा जशवंत सिंह को ना बजुर थी  महाराजा जशवंत सिंह ने ओरंगजेब की इस बात से असहमति जताते हुए कहा कि - “इससे भी अधिक शक्तिशाली शेर तो हमारे पास है।" महाराजा जशवंत सिंह की बात को सुनकर मुग़ल बादशाह ओरंगजेब बड़ा क्रोधित हो उठा।उसने जशवंत सिंह से कहा कि यदि तुम्हारे पास इस शेर से अधिक शक्तिशाली शेर है, तो

सवाई जयसिंह की वेधशाला

सवाई जयसिंह की वेधशाला  जयपुर के इतिहास के पन्नों से जिस नगर-निर्माता, वैज्ञानिक-योद्धा और कूटनीतिज्ञ का नाम कभी धुंधला नहीं पड़ने वाला- ऐसे सवाई जयसिंह को भला कौन जयपुरवासी भूल सकता है? उनका उतार-चढ़ाव से भरा जीवन-चरित कई दृष्टियों से अनूठा है। एक असाधारण वैज्ञानिक-राजा की प्रतिमा- जिसके आरंभिक जीवन में झंझावातों, युद्धों और राजनीतिक उठापटक के अनगिनत दिन दर्ज हैं। पर ये जयसिंह ही थे जिन्होंने भयानक समयों का सामना करते हुए भी अपने भीतर गहरे विद्यानुराग, खगोल-विज्ञान के तलस्पर्शी वैज्ञानिक अध्ययन और शोध के प्रति अपने अनुराग की लौ को कभी मद्धम पड़ने नहीं दिया। ताज्जुब नहीं, पंडित जवाहरलाल नेहरू जैसे लेखक खुद भी उनका उल्लेख अपनी पुस्तक 'भारत एक खोज' में सम्मानपूर्वक करते हैं। जयपुर नगर बसाया था सवाई जयसिंह ने सवाई जयसिंह (3 नवम्बर,1688 - 21 सित.1743) अठारहवीं सदी में भारत में राजस्थान प्रान्त के राज्य आमेर के सर्वाधिक प्रतापी शासक थे। आमेर से दक्षिण में छह मील दूर सन् 1727 में एक बेहद सुन्दर, सुव्यवस्थित, सुविधापूर्ण और शिल्पशास्त्र के सिद्धांतों के आधार पर आकल्पित