सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

rajasthan mein roop kanvar satee kand, jisane desh ko hilakar rakh diya

 rajasthan mein roop kanvar satee kand, jisane desh ko hilakar rakh diya कुँवर मानस सती माता रूप कंवर ( 1987 दिवराला, सीकर - राजस्थान ) : सती" जिसका नाम सुनते ही रूह काँप जाती है, बदन का रोयाँ-रोयाँ खड़ा हो जाता है, दिल में एक अलग तरह की सनसनी पैदा हो जाती है, हम यह सोच भी नहीं सकते है कुछ अरसे पहले ही 4 सितम्बर 1987 को रूप कँवर पत्नी माल सिंह शेखावत कि चिता पर जिन्दा बैठकर सती हुयी और मिथक/किवदन्ती है कि उस वक़्त चिता को ज्योत हाथो से नही दीगई थी असमान से चुनरी उठी और ज्योत लग गयी देवराला, जिला सीकर सती हुए थी. अपने पति माल सिंह जी शेखावत (24) के निधन के बाद रूप कँवर (18) ने सती होने का सोचा और इनके पीछे कोई संतान नहीं थी। ये भी पढ़ें>> वीर तेजाजी का जन्म कब हुआ इन्हे राजस्थान और भारत वर्ष कि आखिरी सती माना जाता है सती होने के बाद आपके परिवार पर तत्कालीन मुख्यमंत्री हरिदेव जोशी सरकार ने 39 व्यक्तियों के खिलाफ मुकदमा राजस्थान उच्च न्यायालय में दर्ज करवाया था। उस समय यह विश्व में चर्चित घटना थी। उसके बाद कहीं भी कोई महिला सती नहीं हुई है। आजादी के बाद राजस्थान में कुल 29 सती ह

Rav veeramdev sonigara1368 - राव वीरमदेव सोनगरा 1368

 राव वीरमदेव सोनगरा 1368 Rav veeramdev sonigara1368 राव वीरमदेव सोनगरा : ( साका जालौर दुर्ग - संवत् 1368 ) राव वीरमदेव सोनगरा ( चौहान ) एक ऐसे बहादुर वीर थे जिनकी वीरता से मुग्ध होकर दिल्ली सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने अपनी पुत्री के विवाह का प्रस्ताव वीरमदेव से किया था पर वीर क्षत्रिय ने यह कहकर दिल्ली सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया कि - " मामो लाजै भाटियां, कुळ लाजै चहुआण । जो हूँ परणूं तूरकड़ी तो पच्छिम् उगै भाण ।। " राव वीरमदेव जालौर के इतिहास प्रसिद्ध शासक कान्हडदेव जी का पुत्र था।अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली सम्राट बनते ही दूसरा सिकन्दर बनना चाहता था वह सम्पूर्ण भारत में अपनी विजय पताका फहराना चाहता था। अलाउद्दीन ने संवत् 1360 में ही रत्नसिंह जी से चित्तौड ! सम्वत् 1358 में हमीर देव चौहान से रणथम्भौर ! और सम्वत् 1364 में सातलदेव चौहान से सिवाना जीत लिया था। इस तरह अलाउद्दीन ने कुछ ही वर्षों में अनेक साम्राज्यों को जीतकर उन पर अपना अधिकार कर लिया था। इनको जीतने के पश्चात् सम्वत् 1362 में उसने जालौर पर आक्रमण किया इस समय जालौर में महान वीर कान्हडदेव

History of jiya rani-जिया रानी का इतिहास

History of jiya rani-जिया रानी का इतिहास  History of jiya rani-जिया रानी का इतिहास (मौला देवी पुंडीर) की गौरवगाथा इतिहास में कुछ ऐसे अनछुए व्यक्तित्व होते हैं जिनके ज्यादा लोग नहीं जानते मगर एक क्षेत्र विशेष में उनकी बड़ी मान्यता होती है और वे लोकदेवता के रूप में पूजे जाते हैं,आज हम आपको एक ऐसी ही वीरांगना से परिचित कराएँगे जिनकी कुलदेवी के रूप में आज तक उतराखंड में पूजा की जाती है. History of Raja jai singh उस वीरांगना का नाम है राजमाता जिया रानी(मौला देवी पुंडीर) जिन्हें कुमायूं की रानी लक्ष्मीबाई कहा जाता है - जिया रानी(मौला देवी पुंडीर)  हरिद्वार(मायापुर) के शासक चन्द्र पुंडीर सम्राट पृथ्वीराज चौहान के बड़े सामन्त थे,तुर्को से संघर्ष में चन्द्र पुंडीर,उनके वीर पुत्र धीरसेन पुंडीर और पौत्र पावस पुंडीर ने बलिदान दिया। ईस्वी 1192 में तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की हार के बाद देश में तुर्कों का शासन स्थापित हो गया था,मगर उसके बाद भी किसी तरह दो शताब्दी तक हरिद्वार में पुंडीर राज्य बना रहा, Pabuji Rathore  ईस्वी 1380 के आसपास हरिद्वार पर अमरदेव पुंडीर का शासन था, जिया रानी का

gaitor kee chhatariyaan - गैटोर की छतरियां

 गैटोर की छतरियां  gaitor kee chhatariyaan - गैटोर की छतरियां अपनी राजपूत शिल्पकला की सुन्दरता का उदाहरण आमेर ( जयपुर ) के कच्छवाहा राजाओं की ये गैटोर की छतरियां संगमरमर और बलुआ पत्थर पर उत्कीर्ण पारम्परिक कला-प्रतीकों और परिश्रम से खोदे गये मनमोहक दृश्य-चित्रों की कमनीयता के लिहाज से बेजोड़ स्मारक हैं। Pabuji radhore ka itihas यह छतरियां पंचायन शैली में निर्मित है जो नाहरगढ़ किले की तलहटी में स्थित है। यह जयपुर का ऐतिहासिक कच्छवाहा शासकों का शाही श्मसान स्थल है जहां इनकी छतरियां है । यह छतरियां सवाई जय सिंह से प्रारंभ होती है जो सवाई मान सिंह जी द्वितीय तक की है । लेकिन यहा सवाई इश्वरी सिंह जी की छतरी नहीं है जिनकी छतरी सिटी पैलेस ( चन्द्र महल) परिसर में है।  ये राजस्थान की प्राचीन वास्तुकला के सुन्दर उदाहरण हैं। सबसे सुंदर छतरी जयपुर के संस्थापक महाराजा सवाई जयसिंह की है, जिसकी एक अनुकृति लंदन के 'केनसिंगल म्यूजियम' में भी रखी गई है। गैतोरे की छत्रियां कछवाहा के लिए एक शाही श्मशान भूमि है, जो एक राजपूत वंश था जिसने इस क्षेत्र में शासन किया था। साइट को 18 वीं शताब्दी मे

History of Raja Jai ​​Singh- राजा जय सिंह प्रथम का इतिहास

राजा जय सिंह प्रथम ( कच्छवाहा )   ढूंढाड़ ( आमेर - जयपुर ) थे। जय सिंह जी प्रथम raja Jai Singh 1621 से 1667 के मध्य आमेर के शासक थे  History of Raja Jai Singh- राजा जय सिंह प्रथम का इतिहास |   Raja jai Singh राजा मान सिंह जी के पोत्र एवं माहस सिंह जी के इकलौते पुत्र थे । ये आमेर के 16 वें शासक थे। ये भी पढ़ें >> रुणिचा का इतिहास  इनका जन्म 15 जुलाई 1611 में हुआ । मान सिंह जी के पुत्र भाव सिंह जी की बंगाल अभियान के दौरान आकस्मिक मृत्यु के बाद जय सिंह प्रथम आमेर की गद्दी पर विराजमान हुए।  ये कुशल रणनीतिज्ञ एवम् हिंदू धर्म रक्षक थे । इनके काल में मुगल शासक भी हिंदू धार्मिक गतिविधिओं व पाठ पूजाओं में हस्तक्षेप नहीं करते थे । इनके शासन के दौरान प्रबल हिंदू विरोधी मुगल शासक औरंगजेब भी मंदिर तोड़ने की हिमाकत नहीं कर सका । जय सिंह प्रथम के समय आमेर के जोधपुर रियासत के साथ मित्रता के प्रगाढ़ संबंध रहे। पहले जोधपुर महाराजा गज सिंह एवम् उनके पुत्र जसवंत सिंह प्रथम के साथ भी काफी मित्रता रही । ( जैसा कि ऊपर के चित्र में प्रदर्शित है - जयसिंह प्रथम और जोधपुर महाराजा गज सिंह प्रथम सा साथ बैठ

Pabuji Rathore (पाबुजी राठौड़)

History of Pabuji Rathore Pabuji Rathore ( पाबूजी राठौड़ )उस वीर ने फेरे लेते हुए ही सुना कि देवल बाई की गाय जिंदराव लेकर जा रहा है यह सुनते ही pabuji वह से आधे फेरों के बीच ही उठ खड़ा हुआ और तथा गाय की रक्षा करते हुए वीर-गति को प्राप्त हुआ  पाबूजी राठौड़ का जन्म वि.स. 1313 को जोधपुर के निकट कोलू मढ़ में हुआ था, पिता का नाम धाँधलजी राठौड़ था ।जब पाबूजी युवा हुए तो अमरकोट के सोढा राणा के यहाँ से सगाई का नारियल आया. सगाई तय हो गई. पाबूजी ने देवल नामक चारण देवी को बहन बना रखा था. देवल के पास एक बहुत सुन्दर और सर्वगुण सम्पन्न घोड़ी थी. जिसका नाम था केसर कालवी .देवल अपनी गायों की रखवाली इस घोड़ी से करती थी इस घोड़ी पर जायल के जिंदराव खिचीं की आँख थी. वह इसे प्राप्त करना चाहता था. जींदराव और पाबूजी में किसी बात को लेकर मनमुटाव भी था. विवाह के अवसर पर पाबूजी ने देवल देवी से यह घोड़ी मांगी. देवल ने जिंदराव की बात बताई. तब पाबू ने कहा कि आवश्यकता पड़ी तो वह अपना कार्य छोड़कर बिच में ही आ जायेगे. देवल ने घोड़ी दे दी.बारात अमरकोट पहुची. जिंदराव ने मौका देखा और देवल देवी की गायें चुराकर ले भागा. पाबूजी जब

History : Meharangarh fort-history in English

History : Meharangarh Fort, in English Mehrangarh the Fort of Jodhpur crowns a rocky hill that rises 400 feet above the surrounding plain, and appears both to command and to meld with the landscape. One of the largest forts in Rajasthan, it contains some of the finest palaces and preserves in its museum many priceless relics of Indian courtly life. For over five centuries Mehrangarh has been the headquarters of the senior branch of Rajput clan known as the Rathores. According to their bards, the ruling dynasty of this clan had at an earlier period controlled Kanauj (in what is known as Uttar Pradesh). Like other prominent medieval Rajput rulers – including the famous Prithviraj Chauhan – they were defeated by the invaders from Afghanistan at the end of the 12th century. This catastrophe led to the disruption and migration of the early Rajput clans that they led. The Rathores came to Pali, in Marwar, in what is now central Rajasthan. It is claimed that they were to settle there to prote