Bharat main Casta pratha kiya hai भारत में जाति प्रथा किया है,
हम एक कहानी के माध्यम से आपको समझते के जाति प्रथा किया है तो चलतें है कहानी की ओर यह कहानी है इन्दुलेखा कि जो गरीब परिवार से हैं और नम्बूदरी ब्राह्मण है जो केरल के रहने वाले हैं ।
निम्न जातियाँ' (Casta) और अल्पसंख्यक आपको पता है कि इंदुलेखा एक प्रेम कहानी थी। लेकिन यह ‘उच्च जाति' की एक वैवाहिक समस्या से भी रू-ब-रू थी जिस पर इसके लिखे जाने ३ के वक्त वाद-विवाद चल रहा था। नम्बूदरी ब्राह्मण उस समय केरल के बड़े जमींदार थे और नायरों का एक बड़ा तबका उनके रैयत/लगानदार थे। अपने आप धन अर्जित कर अमीर बने नायरों की नयी पीढ़ी नायर महिलाओं के साथ नम्बूदरी ब्राह्मणों के रिश्ते पर आपत्ति जताने लगी। वे चाहते थे कि शादी और संपत्ति को लेकर नए कानून बनाए जाएँ।
इस विवाद के आलोक में इंदुलेखा को पढ़ना काफ़ी दिलचस्प होगा। जो इंदुलेखा से शादी के लिए आनेवाले सूरी नम्बूदरी नामक बेवकूफ़ ज़मींदार को इस उपन्यास के व्यंग्य का शिकार बनाया गया है। बुद्धिमान नायिका उसको अस्वीकार कर देती है, और पढ़े-लिखे, सुंदर, नायर माधवन को चुनती है, फिर युवा दंपति मद्रास आकर रहते हैं, जहाँ माधवन सिविल सेवा में नौकरी करता है। सूरी नम्बूदरी को शादी की तड़प थी, लिहाज़ा वह उसी परिवार की एक ग़रीब संबंधी से शादी रचा कर चला जाता है, यह सोचते हुए कि उसने इंदुलेखा से ही शादी की है। चंदू मेनन चाहते हैं कि उनके पाठक नायक-नायिका द्वारा अपनाए गए नए मूल्यों को सराहें और सूरी नम्बूदरी के अनैतिक हथकंडों की निंदा करें।
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इंदिराबाई और इंदुलेखा जैसे उपन्यास उच्च जाति के उपन्यासकारों द्वारा, मूल रूप से वैसे ही चरित्रों को लेकर लिखे गए थे। लेकिन सारे उपन्यास ऐसे ही नहीं थे।
उत्तरी केरल की 'निम्न' जाति के लेखक पोथेरी कुंजाम्बु ने 1892 में सरस्वतीविजयम नामक उपन्यास लिखा, जिसमें, जाति-दमन की कड़ी निंदा की गई। इस उपन्यास का 'अछूत' नायक ब्राह्मण ज़मींदार के जुल्म से बचने के लिए शहर भाग जाता है। वह ईसाई धर्म अपना लेता है, पढ़-लिखकर जज बनकर, स्थानीय कचहरी में वापस आता है। इसी बीच गाँव वाले यह सोचकर कि ज़मींदार ने उसकी हत्या कर दी है, अदालत में मुकदमा कर देते हैं। मामले की सुनवाई के आखिर में जज अपनी असली पहचान खोलता है। और नम्बूदरी को अपने किए पर पश्चाताप होता है, वह सुधर जाता है। इस तरह सरस्वतीविजयम निम्न जाति के लोगों की तरक्की के लिए शिक्षा के महत्त्व को रेखांकित करता है।
बंगाल में भी 1920 के आसपास एक नयी किस्म के उपन्यास का आना हुआ जिनमें किसानों और निम्न जातियों से जुड़े मसले उठाए गए। अद्वैत मल्ला बर्मन (1914-51) ने तीताश एकटी नदीर नाम (1956) के रूप में तीताश नदी में मछली मारकर जीनेवाले मल्लाहों के जीवन पर एक महाकाव्यात्मक उपन्यास लिखा। इसमें मल्लाहों की तीन पीढ़ियों की, उनकी सतत त्रासदियों की और अपनी सुहागरात को ही एक-दूसरे से बिछुड़ गए माँ-बाप के बेटे अनंत की कहानियाँ हैं। अनंत अपनी बिरादरी को छोड़कर शहर आकर पढ़ाई करता है। उपन्यास में मल्लाहों के सामुदायिक जीवन का. उनके होली और काली पूजा उत्सवों का. नौका-दौड़. भटियाली गानों. किसानों से उनके रिश्ते. दोस्ती दुश्मनी और उच्च जातियों के साथ साथ उनकी वैमनस्यता का विशद वर्णन है। पर धीरे-धीरे शहर से आते सांस्कृतिक प्रभावों के दबाव में समुदाय में दरार पड़ जाती है, मल्लाह आपस में लड़ने लगते हैं। समुदाय और नदी के बीच बड़ा नज़दीकी आपसी संबंध है। उनका अंत भी साथ-साथ होता है- ज्यों-ज्यों नदी सूखती है, समुदाय मरता जाता है। हालाँकि बर्मन से पहले के उपन्यासकारों ने भी 'निम्न' जाति के किरदार रचे थे पर तीताश इसलिए ख़ास है चूँकि लेखक खुद 'निम्न' जाति के मल्लाह समुदाय के थे।
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वक्त के साथ उपन्यास माध्यम में ऐसे समुदायों को स्थान मिलने लगा जो साहित्यिक परिदृश्य पर अब तक नज़र नहीं आए थे। मिसाल के तौर पर वैकोम मुहम्मद बशीर (1908-94) मलयालम में मशहूर होनेवाले शुरुआती मुस्लिम उपन्यासकारों में से एक थे।
'बशीर की औपचारिक शिक्षा नहीं के बराबर हुई थी। उनकी ज़्यादातर कृतियाँ उनके अपने अनुभवों, न कि पढ़ी हुई किताबों पर आधारित थीं। पाँच की उम्र में स्कूल की पढ़ाई करते समय उन्होंने नमक सत्याग्रह में भाग लेने के लिए घर छोड़ दिया। बाद में सालों तक वह भारत के विभिन्न हिस्सों में घूमते रहे, फिर अरब गए, जहाज़ पर काम किया, सूफ़ी और हिंदू संन्यासियों की सोहबत की, पहल भी सीखी।
बशीर की उपन्यासिकाएँ और कहानियाँ आम बोलचाल की भाषा में लिखी गई थीं। बशीर के उपन्यास मुस्लिम घरों की रोजाना की जिंदगी को चुटीले अंदाज़ में बयान करते थे। अपने लेखन में उन्होंने गरीब, पागलपन, और बंदी जीवन पर ऐसे कथानक रचे जो मलयालम में उस समय आम नहीं थे।
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