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Kachwaho ki nathawant khanp ke pravartak-कछवाहों की नाथावत खांप के प्रवर्तक

  Kachwaho ki nathawant khanp ke pravartak-कछवाहों की नाथावत खांप के प्रवर्तक : वीर शिरोमणि नाथा जी ( वि. सं. 1621 - 1640 ) नाथा जी का जन्म सं. 1582 में करौली के ठाकुर की पुत्री सत्यभामा जी  के उदर से हुआ। नाथा जी के पिता गोपाल जी ( राजा पृथ्वीराज जी के 6 या 7 वें पुत्र ) 1607 में चोमु के ठाकुर बने तथा इससे पूर्व देवास के बास के स्वामी थे। इनके निधन के बाद संवत 1621 में नाथा जी सामोद की जागीर ( यह आमेर राज्य की प्रसिद्ध 12 कोटडियों में से एक थी ) की गद्दी पर बैठे उस समय उनकी आयु 38 वर्ष की थी। ( चौमू भी इन्हीं के नियंत्रण में रही ) नाथा जी बड़े प्रभावशाली पुरुष थे। इश्वर ने भी उनका नाम अमर करने की विधान बनाए थे। संवत् 1607 के पौष बदी तेरस शनिवार को भगवान दास की धर्मपत्नी पवार जी के उदर से इतिहास प्रसिद्ध मान सिंह जी का जन्म हुआ इनके ग्रह देखकर ज्योतिषी ने बताया कि इनको 12 वर्ष एकांत में रखना चाहिए। तदनुसार राजा भारमल जी ने वर्तमान जयपुर से 50 किलोमीटर दूर मौजमाबाद में उनके रहने का प्रबंध किया और अकेले राजकुमार किसी प्रकार अप्रसन्न या विद्या व्यवहारदि से वंचित न रहे, यह सोचकर उनके पास

dehli ke teen din our teen rat ke badshah-दिल्ली के 3 दिन और 3 रात के बादशाह' कौन है वह जानने?

आज हम एक ऐसे वीर के बारे में बताएंगे जिसने  dehli ke teen din our teen rat ke badshah की इतिहासिक गाथा का बखान करेेंगे जिहा दिल्ली के 3 दिन और 3 रात के बादशाह ☀️वह है वीर  राजा भोजराज जी खंगारोत नरायणा: दोहा:- झेलम में झेली राड, बचायो हुरम की लाज। शाही मिजलस में पायो भोज पातशाही ताज।। बादशाह जहांगीर ने जब काबुल की मुहिम पर जाते हुए झेलम नदी के किनारे रोहिताश गढ़ ( पंजाब ) में डेरा डाल रखा था तो एक रोज बादशाह जहाँगीर की बेगम नूरजहाँ शिकार खेलने के लिए झेलम पार कर जंगलों में चली गई, तब वहा शाही सेना के एक सेनापति महावत खान ने 5000 घुड़सवारों के साथ नूरजहाँ पर हमला बोल दिया। नूरजहां के साथ उस समय राजा भोजराज जी खंगारोत 500 घुड़सवारों के साथ थे। नारी सम्मान और उसकी रक्षा राजपूतों का परम धर्म है चाहे वह किसी भी धर्म की क्यों ना हो, यही विचार कर भोजराज जी खंगारोत में 500 घुड़सवारों के साथ महावत खान के 5000 घुड़सवारों का वीरता से मुकाबला किया। भीषण मार काट के बीच भोजराज जी ने नूरजहाँ को सुरक्षित निकाल कर जहाँगीर के डेरे में पहुंचाया। इस युद्ध मे राजा भोजराज जी खंगारोत बुरी तरह जख्मी हो गए। तब उनके

Kumbha ke sainik megha ka pratik- कुम्भा के सैनिक मेघा का प्रतीक

कुंभलगढ़ :Kumbha ke sainik megha ka pratik कुम्भा की सैनिक मेघा का प्रतीक सुदृढ और विकट दुर्ग के रूप में कुंभलगढ़ की अपनी निराली शान और पहचान है। यह किला न केवल मेवाड़ का अपितु समूचे राजपूताना के सबसे दुभेध्य दुर्गों की कोटि में रखा जाता है। वीर विनोद अनुसार राणा कुम्भा ने वि. सं. 1505 में इसकी नींव रखी । उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार मौर्य शासक सम्प्रति ( सम्राट अशोक का द्वितीय पुत्र ) द्वारा निर्मित प्राचीन दुर्ग के भग्नावेश पर किले का निर्माण कार्य कुम्भा के प्रमुख शिल्पी व वास्तुशास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान मंडन की देखरेख में 10 वर्ष तक चला और विस. 1515 में इसका निर्माण संपन्न हुआ। इस अवसर की स्मृति में कुम्भा ने विशेष सिक्के ढलवाये जिन पर " कुंभलगढ़ दुर्ग " का नाम अंकित किया गया । जमीन रो कुण धणी पर्वत मालाओं की गोद में बना कुंभलगढ़ सही अर्थों में एक प्राकृतिक दुर्ग है । चारों तरफ से हरियाली और पर्वत शिखरों से घिरा होने के कारण यह बहुत ऊंचा होते हुए भी दूर से दिखलाई नहीं पड़ता । इस विशेषता के कारण इसका दोहरा महत्व था - जहां एक ओर यह दुर्ग सैनिक अभियानों के संचालन की दृष्टि स

jameen ro koon dhanee-जमीन रो कूण धणी

 जमीन रो कूण धणी  Jameen ro koon dhanee-पहले स्कुल के स्लेबस में एक कविता हुआ करती थी "जमीन रो कुण धणी ?, ओ धणी को वो धणी "  चुरु के किले का इतिहास  कवि पूर्वाग्रसित था। जमीन के कल तक के धणियों से जिन्होंने ये धरती अपने बहुबल से अर्जित की थी, जिनका धर्म केवल जमीन का उपभोग नही था बल्कि कर्तव्य पालन की महती भावना के तहत बलिदान की की पराकाष्ठा जो की आत्मोत्सर्ग ही था, के लिए सदेव तैयार रहते थे, को गलत ढंग से दिखाने के लिए एक सोची समझी रणनीति के तहत लिखा था। उनकी ओछी हरकत जग जाहिर है , मात्र कविताओं में ही नहीं वरन फिल्मों आदि में भी जमीन के धणियों अर्थात जागीरदार, ठाकुरों को गलत दर्शाया गया और अब भी दर्शाया जाता है । मैंने यह कविता जब मेरी पिताजी को दिखाई तो उन्होंने हंस कर जो प्रत्युत्तर दिया वो कुछ इस प्रकार था - काळ चक्र नै देख घुमतो , बोल उठ्यो कोई कवि कणि। इण धरती रो कुण धणी ,ओ धणी को वो धणी ।। काळ देव हंस कर यो बोल्या ,धरती रो ना कोई धणी । धरती है माता सारा की, काळ देव म बीज बणी। नित उपजाऊ नित खपाऊ .आतो रवे बणी ठनी।। कतरा बेटा इणरी खातर, खून देवे और मौत वरे । बिजोड़ा अन धन

rajasthan mein roop kanvar satee kand, jisane desh ko hilakar rakh diya

 rajasthan mein roop kanvar satee kand, jisane desh ko hilakar rakh diya कुँवर मानस सती माता रूप कंवर ( 1987 दिवराला, सीकर - राजस्थान ) : सती" जिसका नाम सुनते ही रूह काँप जाती है, बदन का रोयाँ-रोयाँ खड़ा हो जाता है, दिल में एक अलग तरह की सनसनी पैदा हो जाती है, हम यह सोच भी नहीं सकते है कुछ अरसे पहले ही 4 सितम्बर 1987 को रूप कँवर पत्नी माल सिंह शेखावत कि चिता पर जिन्दा बैठकर सती हुयी और मिथक/किवदन्ती है कि उस वक़्त चिता को ज्योत हाथो से नही दीगई थी असमान से चुनरी उठी और ज्योत लग गयी देवराला, जिला सीकर सती हुए थी. अपने पति माल सिंह जी शेखावत (24) के निधन के बाद रूप कँवर (18) ने सती होने का सोचा और इनके पीछे कोई संतान नहीं थी। ये भी पढ़ें>> वीर तेजाजी का जन्म कब हुआ इन्हे राजस्थान और भारत वर्ष कि आखिरी सती माना जाता है सती होने के बाद आपके परिवार पर तत्कालीन मुख्यमंत्री हरिदेव जोशी सरकार ने 39 व्यक्तियों के खिलाफ मुकदमा राजस्थान उच्च न्यायालय में दर्ज करवाया था। उस समय यह विश्व में चर्चित घटना थी। उसके बाद कहीं भी कोई महिला सती नहीं हुई है। आजादी के बाद राजस्थान में कुल 29 सती ह

Rav veeramdev sonigara1368 - राव वीरमदेव सोनगरा 1368

 राव वीरमदेव सोनगरा 1368 Rav veeramdev sonigara1368 राव वीरमदेव सोनगरा : ( साका जालौर दुर्ग - संवत् 1368 ) राव वीरमदेव सोनगरा ( चौहान ) एक ऐसे बहादुर वीर थे जिनकी वीरता से मुग्ध होकर दिल्ली सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने अपनी पुत्री के विवाह का प्रस्ताव वीरमदेव से किया था पर वीर क्षत्रिय ने यह कहकर दिल्ली सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया कि - " मामो लाजै भाटियां, कुळ लाजै चहुआण । जो हूँ परणूं तूरकड़ी तो पच्छिम् उगै भाण ।। " राव वीरमदेव जालौर के इतिहास प्रसिद्ध शासक कान्हडदेव जी का पुत्र था।अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली सम्राट बनते ही दूसरा सिकन्दर बनना चाहता था वह सम्पूर्ण भारत में अपनी विजय पताका फहराना चाहता था। अलाउद्दीन ने संवत् 1360 में ही रत्नसिंह जी से चित्तौड ! सम्वत् 1358 में हमीर देव चौहान से रणथम्भौर ! और सम्वत् 1364 में सातलदेव चौहान से सिवाना जीत लिया था। इस तरह अलाउद्दीन ने कुछ ही वर्षों में अनेक साम्राज्यों को जीतकर उन पर अपना अधिकार कर लिया था। इनको जीतने के पश्चात् सम्वत् 1362 में उसने जालौर पर आक्रमण किया इस समय जालौर में महान वीर कान्हडदेव

History of jiya rani-जिया रानी का इतिहास

History of jiya rani-जिया रानी का इतिहास  History of jiya rani-जिया रानी का इतिहास (मौला देवी पुंडीर) की गौरवगाथा इतिहास में कुछ ऐसे अनछुए व्यक्तित्व होते हैं जिनके ज्यादा लोग नहीं जानते मगर एक क्षेत्र विशेष में उनकी बड़ी मान्यता होती है और वे लोकदेवता के रूप में पूजे जाते हैं,आज हम आपको एक ऐसी ही वीरांगना से परिचित कराएँगे जिनकी कुलदेवी के रूप में आज तक उतराखंड में पूजा की जाती है. History of Raja jai singh उस वीरांगना का नाम है राजमाता जिया रानी(मौला देवी पुंडीर) जिन्हें कुमायूं की रानी लक्ष्मीबाई कहा जाता है - जिया रानी(मौला देवी पुंडीर)  हरिद्वार(मायापुर) के शासक चन्द्र पुंडीर सम्राट पृथ्वीराज चौहान के बड़े सामन्त थे,तुर्को से संघर्ष में चन्द्र पुंडीर,उनके वीर पुत्र धीरसेन पुंडीर और पौत्र पावस पुंडीर ने बलिदान दिया। ईस्वी 1192 में तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की हार के बाद देश में तुर्कों का शासन स्थापित हो गया था,मगर उसके बाद भी किसी तरह दो शताब्दी तक हरिद्वार में पुंडीर राज्य बना रहा, Pabuji Rathore  ईस्वी 1380 के आसपास हरिद्वार पर अमरदेव पुंडीर का शासन था, जिया रानी का