पूर्व वैदिक काल में नारी की दशा किया थी।
नमस्कार दोस्तों आज हम `पूर्व वैदिक काल में नारी की दशा, के बारे में जानने का प्रयास करेंगे पूर्व वैदिक काल में महिलाओं की क्या क्या भुमिका रहीं हैं ये अवश्य पढ़ें राजमाता जीजा बाई
1 पारिवारिक जीवन
2 पत्नी के रूप में नारी का महत्व
3 सती प्रथा का प्रचलन नहीं था
4 दहेज प्रथा का प्रचलन
1, पारिवारिक जीवन - इस युग में आर्य कुटुम्ब पितृसत्तात्मक होते हुए भी नारी सम्मान से युक्त । आर्य परिवार में पिता और पितामह ही कुटुम्ब का प्रधान होता था । जिसे गृहपति कहा जाता था । गृहपति तथा उसकी पत्नी को जिसे गृह के सभी कार्यों के लिए उतरदायी रहना होता था । कुटुम्ब के सभी लोगों के ऊपर सामान्यत: नियन्त्रण रखने का अधिकार रहता था पिता की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र ही गृहपती बनता था वहीं अपने पिता की संपत्ति का उचित उतराधिकारी माना जाता था । पुत्री नहीं। पुत्री को वह सम्पत्ति तभी प्राप्त होती थी जबकि वह अपने पिता की एकमात्र सन्तान हो । पिता की मृत्यु के पश्चात भ्राता का कर्तव्य अपनी बहिन के प्रति विशेष रूप से बढ़ जाता था ।
2, पत्नी के रूप में नारी का महत्व - कहा जाता है कि वह अपने पति के साथ यज्ञ आदि करती, दान देती, सोम रस बनाती तथा पीती थी। पत्नी पत्नी के एक साथ धार्मिक कृत्य करने तथा सन्तान को साथ में लेकर आनन्द विहार करने के भी हमें ऋग्वेद में अनेक उदाहरण मिलते हैं। ऋग्वेद में यह उल्लेख मिलता है कि पत्नी ही घर है, पत्नी ही गृहस्थी है तथा पत्नी ही आनंद है। ऋग्वेदिक स्त्री की वस्तुस्थिति का ज्ञान तत्कालीन वैदिक प्रथाऔ से भी होता है। उस युग में सम्भवतः स्त्री पुरुषों के पारिवारिक सम्बन्धों के प्रश्न पर कोई अधिक वर्ग भेद नहीं किया जाता था। लोगों को स्वयंवर अथवा वधू को चुनने की छूट मिलती थी और कभी कभी माता पिता भी शादी तय कर दिया करते थे। क्योंकि प्रत्येक तरुण अथवा तरुणी के जीवन में स्वयं वर वधू का निर्वाचन सम्भव नहीं हो पाता था इस प्रकार किसी भी अन्य विधि से शादी तय हो जाने के उपरांत पर्याप्त धुम धाम से वैवाहिक प्रथाएं सम्पन्न की जाती थी। उस समय भी वर पक्ष के लोग सज धज कर वधु के घर जाते थे और उनका पूर्वतया स्वागत सत्कार होता था। पुरोहित द्वारा बताए गए शुभ मुहूर्त पर वर वधू का पाणिग्रहण संस्कार किया जाता था और वर वधू अग्नि की परिक्रमा करते थे। पाणिग्रहण के पश्चात विराट उत्सव समारोह किए जाते थे जिनमें सभी लोग सुन्दर वस्त्राभूषणो से सुसज्जित होकर सम्मिलित हुआ करतें थे। विवाह के अवसर पर जो मन्त्रोंच्चारण किया जाता था उसका तात्पर्य होता था कि हे प्राणियों के स्वामी! हमें सन्तान से कृतार्थ करें, अर्थमान हमें वृद्धावस्था तक प्रणय के सूत्र में आबध्द रखें । हे वधू ! पति के घर में तुम्हारा प्रवेश मंगलकारी हो ।
"हे वधू! अपनी सास तथा श्वसुर को वशीभूत करो तथा अपनी ननदों तथा देवरों के बीच में रानी की भांति शोभायमान हो।"
विवाह संस्कार के विधिवत् सम्पन्न हो जाने पर वर वधू को रथ पर बिठाकर • अपने घर ले आता था। प्राचीनकाल में बहुविवाह की प्रथा भी प्रचलित थी। राजा-महाराजा तथा बड़े-बड़े पण्डित व पुरोहित कभी-कभी अनेक विवाह भी कर लेते । परन्तु सामान्य परिवारों की स्त्रियाँ तथा पुरुष बहु विवाह के दोषों से थे। मुक्त क्योंकि यह प्रथा केवल उच्च, कुलीन तथा धनी कुटुम्बों तक सीमित थी । थे।
3. सती प्रथा का प्रचलन नहीं था- ऋग्वेद काल में सती प्रथा का प्रचलन नहीं था और न ही उस युग में विधवा विवाह को वर्जित समझा जाता था। क्योंकि ऋग्वेद में सती प्रथा का उल्लेख नहीं मिलता किन्तु विधवा-विवाह के सम्बन्ध में इसमें कई मन्त्र पाये जाते हैं जिनमें एक का हिन्दी अनुवाद नीचे प्रस्तुत किया जाता था-"उठो स्त्री! तुम उसके पास खड़ी हो जिसका जीवन समाप्त हो चुका है। अपने पति से दूर हटकर जीवितों के संसार में आओ तथा उसकी पत्नी बनो जो तुम्हारा हाथ पकड़ता है और तुमसे विवाह करने को तत्पर है।"
4. दहेज प्रथा का प्रचलन - ऋग्वेद के एक मन्त्र से यह भी प्रकट होता है कि उस समय में दहेज प्रथा का भी प्रचलन था । परन्तु जहाँ विवाह सम्बन्ध करने की वर-वधू को पूर्ण स्वतन्त्रता मिल जाती थी, वहाँ पर सम्भवतः इस प्रथा को कठोरतापूर्वक पालन करना अनिवार्य नहीं रहता था। भारतीय आर्य विवाह को एक पुनीत कार्य समझते थे, किन्तु अन्य देशवासी इसे केवल भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही आवश्यक मानते थे ।
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