Utarvaidik kal main female ki dasha kiya thi,
उत्तरवैदिक काल में स्त्रियों की दशा किया थीं। इस पोस्ट में आज हम जानेंगे।
• उत्तरवैदिक कालीन साहित्यिक कृतियों का अध्ययन करने से यही ज्ञात होता है कि इस समय से भारतीय नारी की दशा पतनोमुखी होने लगी थी। इसके उस समय में कई प्रत्यक्ष कारण पाये जाते हैं एक इस युग में जीवन की मान्यताओं और परिभाषाओं में यथेष्ठ अन्तर आ गया था। ये अवश्य पढ़ें वीरधर्म किया है
एक ओर मानव जीवन के आनन्दों की कल्पना की जाने लगी थी तो दूसरी ओर तप अर्थात् तपश्चर्या पर भी अधिकाधिक बल दिया जाने लगा। अतएव तपश्चर्या के महत्त्व पर अधिकतम ध्यान देने वाले उत्तरवैदिक कालीन आर्यों का स्त्रियों को उपेक्षित करना स्वाभाविक था। इसके अतिरिक्त वैदिक काल से निम्न वर्ण की कन्या लेने की प्रथा भी अब काफी दूषित हो चुकी थी। पहले निम्न वर्ण के कन्या लेने वाले व्यक्ति उसकी सौम्यता एवं योग्यता का समुचित रूप से ध्यान रखते थे और बहुधा वह कन्यायें भी विदुषी और गुणवती हुआ करती थी परन्तु इसके विपरीत उत्तरकालीन आर्यों की स्त्रियों में शिक्षा का अभाव था और वे अधिकतर अशिक्षित ही रह जाती थीं। यदि कहीं भाग्यवश उनका रूपलावण्य के कारण उनका पिता माता द्वारा विवाह सम्बन्ध भी कर दिया जाता था तो उनका ससुराल में प्रायः कोई आदर सम्मान नहीं होता था। उनको घर की अन्य स्त्रियाँ प्रायः हेय दृष्टि से ही देखती थी। इसके अतिरिक्त यह भी निश्चित था कि अपने वर्ण के बाहर विवाह करने वाले लोग भविष्य में बहुधा निम्न वर्ण की ही कन्या अपनाते रहे होंगे। फलतः बहु-विवाह के दोषों से तत्कालीन सभ्य समाज में कटुता भी उत्पन्न हो गई। धीरे-धीरे सम्पूर्ण नारी समाज को हीन समझने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो गई थी। परन्तु कालान्तर में इस सम्बन्ध में भी कठोरता आ गई और समाज में स्त्रियों तथा पुरुषों का खुलकर एक दूसरे के साथ प्रेमालाप करना घृणित माना जा लगा। तथापि हमें इस बात के ऋग्वेद (दशवें मण्डल) तथा अथर्ववेद से अनेकानेक प्रमाण मिलते हैं कि प्रेमी-प्रेमिका में एक दूसरे से मिलने एवं एक दूसरे को अपनी
ओर आकृष्ट करने की अतीव प्रबल उत्कण्ठा पाई जाती थी।
1. बहुविवाह प्रथा - मेत्रायणी संहिता में राजा मनु की दस पत्नियों का उल्लेख आया है जिससे यह प्रमाणित होता है कि बहुविवाह प्रथा का अवश्य ही प्रचलन रहा होगा। किन्तु यहां पर निश्चयपूर्वक कहना कठिन है कि उस युग में एक व्यक्ति कम से कम कितने विवाह कर सकता था। उस युग के सौतों के पारस्परिक झगड़ों से सम्बन्धित उल्लेखों के आधार पर यह अवश्य ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उन दिनों बहुविवाह का प्रचलन था। ऋग्वेद के दशम मण्डल के एक सौत के विनाश का जो उल्लेख मिलता है उसमें एक स्त्री अपनी सौतों से मुक्ति पाने के हेतु देवताओं को बलि प्रदान करती है। इसी प्रकार अथर्ववेद में भी इस आशय का एक उल्लेख मिलता है कि कोई अपनी दूसरी सौत को शाप देती हुई कहती है कि “तेरे कभी सन्तान न हो और तू बांझ हो जा।" इस प्रकार के 'तू विवरण यह स्पष्ट करते हैं कि उन दिनों बहु विवाह चाहे कम रहे हों अथवा अधिक परन्तु ये निश्चित ही पुरुष और साथ ही स्त्रियों के वैवाहिक जीवन को दुखमय बना देते थे। यहां पर यह उल्लेखनीय है कि उस युग में एक पति एक साथ ही अनेक पत्नियां तो रख सकता था किन्तु एक पत्नी एक साथ कई पति नहीं रख सकती थी और इसका प्रमाण हमें 'एतरेय ब्राह्मण' ( 3-23) से मिल सकता है। परन्तु महाभारत की द्रोपदी का उदाहरण इस सम्बन्ध में एक अपवाद मात्र ही प्रतीत होता है क्योंकि इतने लम्बे काल के अन्तर्गत यह अपने प्रकार का एक प्रथम एवं अन्तिम उदाहरण है।
2. विधवा विवाह-विधवा विवाह का प्रचलन ऋग्वेद काल से ही चला आ रहा था किन्तु उत्तर वैदिक काल में भी इसके अनेक उदाहरण मिलते थे। डॉ. बेनी प्रसाद ने अपने ग्रन्थ “हिन्दुस्तान की पुरानी सभ्यता" में ऋग्वेद ( 10/18/8) तथा अथर्ववेद (18/3-2) के आधार पर यह उल्लेख किया है कि इन वेदों के अन्तर्गत जिन मन्त्रों में सती का विधान देखने को मिलता है वे वस्तुतः विधवा विवाह का समर्थन करते हैं।
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